होली के बादशाह की ही तरह हैं ये,कोई पांच साला, कोई साठ साला

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Published on : 14 Mar, 25 18:03

- डॉ. दीपक आचार्य

होली के बादशाह की ही तरह हैं ये,कोई पांच साला, कोई साठ साला

होली का पर्व हो और ‘होली का बाहशाह-होली का बादशाह’ की गूंज न हो तो वो होली कैसी। होली का यह बादशाह पता नहीं जाने कितनी सदियों से अमर है जो साल भर गायब रहता है और धुलेड़ी के दिन आ टपकता है।

होली का बादशाह इतना तिलस्मी है कि दुनिया में कहीं भी हो, धुलेड़ी के दिन उसकी अतृप्त आत्मा हर जगह किसी न किसी में आ ही जाती है और दिन भर मनोरंजन करती और कराती है। इस दिन कहीं कोई वर्जना नहीं, जैसा बादशाह, वैसे ही दरबारी और रियासतदार।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दंभ भरने वाले हमारे महान भारत के लिए भी एक दिन बादशाहत का होता ही होता है। जहां कहीं कोई कभी बादशाहत नहीं दिखा सके, उसके लिए होली का पर्व सहज सुलभ अवसर है जिस दिन कोई भी स्वैच्छिक रूप से अपने समूह को भ्रमित कर या पटा कर बादशाह का ओहदा पा सकता है।

यों भी रियासतों और मुगलकालीन आक्रान्ताओं, लूटेरों के समय से बादशाहत किसी न किसी रूप में होवी रही ही है। कभी कम कभी ज्यादा। इन बादशाहों के जुल्मों ने धरती और धरतीवासियों को तबाह करने में कहीं कोई कसर बाकी नहीं रखी। और यही बादशाहत आज तक जारी है।

लूटेरे गोरों के जाने के बाद काले अंग्रेजों के कारनामों, करतूतों और हरकतों में बादशाही प्रदूषण के तमाम रंग-रूपों से हमारी पुरानी पीढ़ियों का सामना होता रहा है, और यह आज भी बदस्तूर जारी है।

न रियासत, न बेगम या सुल्तान बेगम, न दरबारी और खजाने, मगर होली का बादशाह इसी में आत्म मुग्ध होकर जीता है कि उसे बादशाह के रूप में सम्मान दिया जा रहा है, भले एक दिन के लिए ही सही।

यही बादशाहत हमारे ब्यूरोक्रेट्स और नेताओं तक में आज भी पूरे यौवन पर जारी है। ये विभिन्न प्रकार की सेवाओं का तमगा लगाकर आते हैं और फिर सेवा भावना को दरकिनार कर अपने कर्मयोग को उद्योगों का दर्जा दिलाने में जुट जाते हैं। इनमें अवधि का थोड़ा-बहुत अन्तर संभव है मगर बादशाहत के नाज-नखरे और रुतबों के मामले में इनका कोई सानी नहीं।

मूल रूप से दो तरह के बादशाहों से हमारा आमना-सामना हमेशा होता रहता है। पांच साला बादशाहों का सिलसिला भी कायम रहा है और साठ साला बादशाहों की भी धींगामस्ती का दौर हमने देखा है और निरन्तर देख रहे हैं, मरते दम तक देखते रहने वाले हैं।

फिर साठ साला और पांच साला बादशाह जहां कहीं एक साथ मिल जाएं तो फिर बादशाही जलेबियों, इमरतियों और गोलगप्पों से लेकर तमाम प्रकार के व्यंजनों का लजीज स्वाद तैरता ही रहता है। नई-नई टकसालों की नींव पड़ जाती है और इनसे उगलता रहता है वह सब कुछ जिसके लिए अधिकतर लोग धरा पर अवतार लेकर पिछले जन्मों की कुंभकरणी भूख और सुरसाई प्यास को बुझाने के जतन करते हुए अपनी अतृप्त आत्माओं को तृप्त करने के धंधों में रमे हुए हैं।

बड़े पैमाने पर शकुनियों, कालनेमियों, मारीच और तमाम युगों के असुरों से लेकर पूतना और सभी राक्षसियों के चरित्र आजकल कलियुग में एक साथ देखने को मिल पा रहे हैं यह हमारे लिए कितने सौभाग्य की बात है।

होली के बादशाह का मूल उद्देश्य जनमानस को मनोरंजन और उन्मुक्त आनन्द प्रदान करते हुए जीवन के संत्रासों, विषमताओं, अभावों और समस्याओं से कुछ क्षण के लिए ही सही, मुक्त रखना है। और बादशाह को इच्छा या अनिच्छा से स्वीकार करने वाली प्रजा भी बादशाहों के नाम पर ‘होली का बादशाह-होली का बादशाह’ का उद्घोष करते हुए उसे चने के झाड़ पर चढ़ाते हुए अच्छा-खासा मनोरंजन कर लिया करती है। और तब ये अपने आप को अमरबेल की तरह अजर-अमर होकर आसमान की ओर बढ़ते हुए हवा से बातें करने वाली महान शख्सियत के रूप में स्थापित कर नहीं अघाते।

इस मामले में सारे बादशाह एक जैसे ही हैं। सभी को चाहिएं उल्लू, गधे, अंधानुचरों और वज्रमूर्ख अंध भक्तों की अपार भीड़ जो बिना कुछ सोचे-समझें उनकी परिक्रमा और जयगान करते हुए उनकी पालकियां तोकती रहकर विलासी मार्गों और ठिकानों की तरफ ले जाती रहे।

सभी तरह के बादशाहों को चाहिए हराम का धन, जमीन-जायदाद और प्रतिष्ठा। फिर उन बादशाहों की भी कहाँ कोई कमी है जिन्हें मखमली स्पर्श और गरमागरम जिस्म से प्रस्फुटित सरसराहट और गुदगुदेदार आनन्द की ही सर्वोपरि डिमाण्ड रहती है।

अपने यहां बादशाहों को भगवान की तरह पूजा और आदर-सम्मान दिया जाता है। इस परम्परा का निर्वाह करने में हमारे लोभी-लालची, पद-प्रतिष्ठा और पैसों के भूखे पूर्वज भी पीछे नहीं थे, उन्होंने अपनी वंश-परम्परा का स्वाभिमान और इंसानियत भुलाकर वह सब कुछ उन्हें उपलब्ध कराया जो बादशाहों ने चाहा। इन नंगे-भूखों और लुटकर प्रतिष्ठा का गौरव पाने वालों को कोसने में आज भी हम पीछे नहीं रहते।

और इनमें सबसे बड़ी बात यह है कि होली के बादशाह की ही तर्ज पर साठ साला और पांच साला बादशाह अपने अंधभक्तों और कद्रदानों के कंधों, उनकी बुद्धि और कर्मयोग का पूरा-पूरा इस्तेमाल कर जी भर कर मनोरंजन करते हैं और वह भी उन्हीं से।

इस मामले में बादशाहों की स्थिति कॉमेडियन और मसखरों जैसी ही हो गई है जो जनता को मूर्ख मानते हुए मुफ्त में अपना और अपने परिवार का मनोरंजन करते रहते हैं। और जनता भी अब इनकी असलियत जानकर इन्हें अपने मनोरंजन का माध्यम बना चुकी है। दोनों एक-दूसरे को छल रहे हैं।

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि किसी को करना-धरना कुछ नहीं है, चिल्ला-चिल्ला कर बकवास करते रहो, झूठ पर झूठ परोसते रहो और अपना मनोरंजन करते रहो। कुछ बड़े-बड़े मसखरे तो मसखरी और मूर्खता के ब्राण्ड एम्बेसेडर माने जाने लगे हैं।

इसी में इनका पूरा टाईम निकल जा रहा है और वे हमें बेवकूफ बनाते हुए नामदार और वैभवशाली बनते जा रहे हैं, विदेशों में धन जमा करते जा रहे हैं और हम हैं कि जहां थे, वहीं अटके और पटके हुए हैं। आजादी के अमृतकाल के आते-आते सारा अमृत तो ये काले अंग्रेज छक कर पी गए, अब बचा ही क्या है। वे पी भी जाते हैं और अमृत पात्र में छेद भी कर जा रहे हैं।

इन सभी के अपने-अपने शुक्राचार्य हैं जो अपने अड्डों की प्रसिद्धि और हराम का धन-वैभव व भोग-विलास चाहने इन्हें गाईड करते हुए राहु-केतुओं की पूरी बटालियन तैयार करते जा रहे हैं।

यही वजह है कि इन राहु-केतुओं की वजह से हमारी दैवभूमि भारतवर्ष में हर बार ग्रहण योग और चाण्डाल योग का बुरा साया दिखता रहता है। और अब तो बादशाहों की बजाय बेगमों का कुनबा भी लगातार बढ़ता ही जा रहा है जो राज-काज संभालती हुई हरसंभव वो कहर ढा रही हैं जो उन्हें शोभा नहीं देता। ऐसी बेगमें हर क्षेत्र में फन मार रही हैं। मजे की बात ये है कि सब कुछ जानते-बूझते हुए भी लोग उन पर मर रहे हैं।

हर साल आने वाली होली यही कहती है कि इन बादशाहों की असलियत समझें और इन्हें उतना ही सम्मान नवाजें जिसके लिए ये योग्य हैं।

गोरी चमड़ी के आकर्षण के मारे इन बादशाहों को हमने इतना अधिक चढ़ा रखा है कि ये निर्लज्ज शोषक और भ्रष्टाचारी अंग्रेजी शासन और मुगलकालीन धृष्टताओं की बौछार करते जा रहे हैं। और चंद टुकड़ों पर पलने को ही जीवन का मकसद मानने वाले हमारे ही कुछ गधे इन्हें अपनी पीठ का आनन्द दे रहे हैं। अपने कंधों पर इनकी पालकियां ढो रहे हैं।

होली है भाई होली है,

जोर से बोलो - होली का बादशाह, होली का बादशाह


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