हर चीज की शुरुआत बचपन से ही होती है। बचपन में सीखी सीख आपको भविष्य के लिए तैयार करती है। इसमें जितना योगदान घर से मिले संस्कारों का होता है उतना ही स्कूली जीवन में मिली सीख का भी होता है। स्कूल से मिली सीख केवल किताबी ज्ञान ही नहीं देती है बल्कि जिंदगी की कसौटी के लिए भी तैयार करती है। उदाहरण के लिए पुराने और आज के समय की शिक्षा की नीति और उससे पड़ने वाले प्रभावों की ही बात करें। आज बच्चों के पढ़ने के लिए सुविधाएँ तो बहुत हो गई है लेकिन ये सुविधाएँ नौनिहालों के कच्चे मन को जिंदगी की तपिश के लिए परिपक्व नहीं कर पा रही है। और इसके गंभीर परिणाम सामने आ रहे हैं.....
उदाहरण के लिए पहले और आज की शिक्षा नीति की ही बात कर लें। पहले की शिक्षा पद्धति ऐसी थी जो ना सिर्फ शिक्षा देती थी बल्कि जीवन जीने का अनमोल ज्ञान भी देती थी। दो दशक पहले की ही बात करें, तब स्कूलों में यह नियम था कि जो परीक्षाओं में पास हो गया वो अगली कक्षा में जाता था और जो फेल हो गया वो फिर से पिछली कक्षा में ही पढता था। यह नियम हर स्तर की कक्षा में समान रूप से लागू था। इस नीति के दो फायदे थे, पहला तो ये कि पिछली कक्षा में एक साल और ना पढ़ना पड़े इस डर से बच्चे मेहनत से परीक्षा की तैयारी करते थे। इससे उनकी शिक्षा का स्तर तो सुधरता ही था, साथ ही वे अपनी मेहनत के दम पर सफलता पाते थे। दूसरा ये कि फेल होने की स्थिति में उन्हें पता होता था कि असफलता क्या होती है। वे असफलता से भली प्रकार परिचित रहते थे। बचपन से ही उन्हें अपनी मेहनत से मिली सफलता और अपनी किसी कमी के कारण मिली असफलता, दोनों का अनुभव रहता था। इससे बच्चे ना सिर्फ स्कूली परीक्षा के लिए, बल्कि जीवन की कसौटी के लिए भी तैयार होते थे।
समय बदला तो शिक्षा नीति भी बदली, जिसमें 8वी तक के छात्रों को हर स्थिति में पास करने का नियम लागू किया गया। ऊपरी तौर पर तो यह नियम बड़ा अच्छा लगा कि इससे छात्रों पर पढ़ाई का दबाव कम होगा। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से इस नियम ने बड़ा नुकसान किया। अब छात्रों को पता था कि परीक्षा के लिए पढ़ा जाए या ना पढ़ा जाए पास तो होना ही है, तो फिर क्यों किताबों में सर खपाया जाए। इससे बुनियादी शिक्षा का स्तर तो गिरा ही, ऊपर से छात्रों को असफलता का स्वाद पता ही नहीं चला। कक्षा दर कक्षा पास होते गए और जीवन के 10-11 साल बड़े आराम से निकल गए। लेकिन जीवन तो जीवन है यहाँ सुख-दुःख, हार-जीत सबका बराबर हिस्सा है। यही बच्चे जब बड़ी कक्षाओं में पहुंचे तो बुनियादी शिक्षा की कमी ने पढ़ाई में बाधाएं खड़ीं की, साथ ही अब परीक्षा में बिना मेहनत और पढ़ाई के पास होना भी संभव नहीं रहा। प्रतिस्पर्धा ने स्थिति को और बिगाड़ दिया।
इन स्थितियों का नतीजा ये हुआ की छोटी सी असफलता भी बच्चों के मन पर गहरा प्रभाव छोड़ने लगी। और हमारे सामने छात्रों के मानसिक तनाव के कारण अवसाद में जाने और आत्महत्या की ख़बरें सामने आने लगीं। पिछले पांच सालों में यह स्थिति एक गंभीर चिंता का विषय बन चुकी है। आंकड़े बताते हैं कि हर साल होने वाली आत्महत्याओं में 22 साल और उससे कम उम्र के युवाओं की संख्या बढ़ रही है, जिसका मुख्य कारण परीक्षाओं में असफलता रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, देश में 2022 में लगभग 1,70,924 आत्महत्याएं हुईं, जिनमें से करीब 7.6 % छात्रों द्वारा की गईं। इनमें से भी 2200 के आस-पास आत्महत्या के केस में परीक्षा में असफलता कारण बनी।
नई पीढ़ी को छोटी सी सफलता देकर हमारी शिक्षा नीति ने कितने बड़े स्तर पर असफल किया है, इस बात का अनुमान इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है। बात केवल परीक्षा की नहीं है ये आंकड़े बताते हैं कि आने वाली पीढ़ी असफलता और संघर्ष जैसे अनुभवों के लिए तैयार ही नहीं है। आजकल के युवा जीवन में असफलता देखे बिना ही सफल होना चाहते हैं, और जब यह नहीं हो पता तो वे मानसिक रोग, आत्महत्या जैसे अवसादों से घिर जाते हैं। अगर बचपन से ही असफलता का अनुभव होता तो ये पीढ़ी जीवन में आने वाली बड़ी असफलताओं के लिए भी तैयार रहती और आज जो आंकड़े हमारे लिए चिंता का विषय बन रहे है वो शायद देखने को ही ना मिलते।
गलती यहाँ सिर्फ युवाओं की ही नहीं है। समाज के रूप में हमने भी असफलता को इतना नकारात्मक बना रखा है कि किसी की जरा सी असफलता पर हम उसे हीन भावना से देखने लगते हैं। उसकी मेहनत और संघर्ष को सिरे से नकार देते हैं। जबकि हमें यह समझने की जरुरत है कि सफलता और असफलता एक सिक्के के दो पहलु हैं। दोनों का जीवन में अपना-अपना महत्व है। सफलता और असफलता को समझाते हुए स्व. श्री रतन टाटा ने कहा था, यदि किसी इ.सी.जी. में ग्राफ ऊपर नीचे नहीं हैं, अर्थात् यदि उसमे हमारे दिल की धड़कनें ऊपर नीचे चलने की बजाय एक सीधी लाइन में आ जाएं तो हमें मृत मान लिया जाता है; ठीक इसी प्रकार उतार-चढ़ाव (सफलता और असफलता) हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा हैं। इसमें यह होने ही चाहिए।
इसलिए कहता हूँ फेल भी होते रहिये। जब मन और मस्तिष्क असफल होने पर भी सहज रहेंगे और इसे स्वीकार कर पाएँगे। तब आप असफलता का अवलोकन शांत मन से कर पाएँगे, इससे जितना आप सफल होने पर सीखेंगे उससे कहीं ज्यादा आप असफल होने पर सीखेंगे। और यही सीख आगे आने वाली किसी बड़ी सफलता का कारण बनेगी।