अनजान शहर में माँ-पिता की याद

( 1364 बार पढ़ी गयी)
Published on : 25 Oct, 24 02:10

विकास कुमार उज्जैनियां

इस अनजान शहर में मेरा मन नहीं लगता,

ये छात्रावास का कमरा मुझे घर नहीं लगता,

कमी सताती है आप दोनों की मुझे,

रोज मेरा अक्स पूछता है की ऐसा क्या पाना है तुझे,

काश कोई आये और फिर से माता पिता की गोद का बच्चा कर दें,

मेरा ये वक़्त बहुत बीमार है,

माता पिता की मौजूदगी इसे अच्छा कर दें,

पहले लड़ता था ना की बाहर का खाना है,

सब सामने है अब पर कुछ खाता नहीं हूँ,

अब में ज्यादा बाहर जाता नहीं हूँ,

जब तबियत खराब होती है ना,

तो सिसकिया सताती बहुत है,

पल पल जिंदगी आप दोनों की अहमियत बताती बहुत है,

ना तो सो पाता हूँ, ना जाग पाता हूँ,

अपनी परिस्तिथि से कहा भाग पाता हूँ,

मेरी उम्र भी आप दोनों को लग जाये,

आप लोगो खोने के अलावा मुझे किसी से डर नहीं लगता,

और आ जाना मिलने मुझसे आप,

मेरा इस अनजान शहर में मन नहीं लगता...


साभार :


© CopyRight Pressnote.in | A Avid Web Solutions Venture.