मौलिक और श्रेष्ठ लेखन को मिलते हैं पाठक

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Published on : 28 Sep, 24 06:09

डॉ.प्रभात कुमार सिंघल, कोटा

मौलिक और श्रेष्ठ लेखन को मिलते हैं पाठक

पुराने समय से ही साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता रहा है। यह सत्य भी है , समाज जैसा होगा उसका प्रतिबिंब भी वैसा ही होगा। एक समय था जब लिपि का प्रचलन नहीं था तब भावों और अंतरात्मा की आवाज़ को मौखिक गा कर या सुना कर बताया जाता था। लिपि का चलन हुआ तो मुद्रण का आविष्कार नहीं होने से रचनाएं कलम दवात से कागज, ताड़ पत्र, भोज पत्र,कपड़े आदि पर लिखी जाती थी। आज भी उस समय के हज़ारों हस्तलिखित ग्रंथ हमारी अमूल्य धरोहर हैं। अनेक प्राचीन कालजई साहित्यकारों की रचनाएं उनके कई सालों बाद प्रकाशित हुई, जब मुद्रण प्रेस का आविष्कार हुआ।  
     कालजई अनेक साहित्यकारों का सृजन सदियों से रचनाकारों के लिए प्रेरणा श्रोत बना हुआ है। इसी प्रमुख वजह उनका मौलिक और श्रेष्ठ लेखन ही है। उस समय के साहित्यकारों ने लेखन को ही प्रधानता दी। उन्हें कोई सराहेगा या कोई पुरस्कार मिलेगा ऐसी कोई कल्पना भी उनके दिमाग में नहीं होती थी। समय रहते जब उनका साहित्य पढ़ा गया तो उसकी महत्ता प्रतिपादित हुई। अनेक कहानियां और उपन्यास फिल्मों का विषय बने और उन पर फिल्में बनाई गई। उनके साहित्य पर हज़ारों लोगों ने शोध कर अपने प्रबंध लिखे। 
   जिन स्थितियों में उनका साहित्य लिखा गया वे आज से सर्वथा भिन्न थी। आज की तरह लिखने की सुविधाएं नहीं थी, प्रचार - प्रसार के साधन नहीं थे, न्यूंतन सुविधाओं में सब कुछ हाथ से लिखना कितना कठिन रहा होगा, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। फिर भी वे पीछे नहीं हटे, डटे रहे और अंतरात्मा की आवाज़ से लिखते रहे। उस समय जब की दरबारी साहित्य ज्यादा लिखा गया तो भी सामान्य जन के लिए भी लिखा जाता था। समय के साथ  - साथ लेखन का स्वरूप और दिशा बदलती रही। मध्यकाल का अधिकांश साहित्य भक्ति धारा से प्रभावित रहा। अष्ठछाप कवियों का साहित्य आज तक प्रसिद्ध है। देश की आज़ादी की लड़ाई में देश भक्ति को जगाने वाले साहित्य का सृजन हुआ।देशभक्ति और शोर्यपूर्ण रचनाओं ने आजादी के आंदोलन में चिंगारी का काम किया। लोगों को उद्वेलित कर आजादी के आंदोलन से जोड़ा।
   एक अर्थ यह भी सामने आता है कि  सृजन अगर अर्थपूर्ण न हो ऐसे लिखने का कोई मतलब नहीं रह जाता। जो भी लिखा जाए उसका उद्देश्य अवश्य होना चाहिए और वह पाठकों  को मनोरंजन के साथ शिक्षित और जागरूक करने की क्षमता रखता हो। ऐसा वही सृजन कर सकता है जो मौलिक , श्रेष्ठ और उद्देश्य परक होगा।
 साहित्य आज भी खूब लिखा जा रहा है, पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं , साहित्यकारों की कृतियों को पुरस्कृत भी किया जा रहा है। बावजूद इसके साहित्य का क्षेत्र अनेक चुनौतियों से जूझ रहा है। सबसे बड़ी चुनौती तो लिखे गए साहित्य के लिए पाठकों की कमी होना है। इंटरनेट के युग में  पुस्तक को पढ़ने वाले पाठक बहुत कम रह गए हैं। आज तकनीक के युग में कंप्यूटर या मोबाइल पर ई - पुस्तकें और कई ऐप्स पर पुस्तकों के सार संक्षेप की ऑडियो उपलब्ध हैं। पुस्तक पढ़ने में काफी समय लगने के झंझट से मुक्ति और बहुत कम समय में पढ़ने की सुविधा। अपनी रुचि के अनुसार किसी भी पुस्तक का सार ओडियो से 15 - 20 मिनिट में सुना और समझा जा सकता है। विद्वान भी आज इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि स्मार्ट राइडिंग बेहतर विकल्प है। यह कहना पूरी तरह उचित नहीं की पुस्तकें पढ़ी नहीं जाती हैं, उनको पढ़ने का माध्यम बदल गया है। हां, इसका असर पुस्तकों की बिक्री पर जरूर हुआ है।
     एक समस्या मौलिक लेखन को लेकर है। रातों रात प्रसिद्धि पाने की चाह में मौलिक लेखन पर नकल की परत चढ़ती जा रही है। एक रचना के भावों पर दूसरी रचना बना ली जाती है। लिखने का उद्देश्य तिरोहित हो कर प्रसिद्धि पाना हो गया है। ऐसा लोग भूल जाते हैं कि  जो कालजई लेखक हुए हैं वे अपने लेखन के बूते पर ही हुए हैं। बुलंदियों पर वही पहुंचेगा जिसका लेखन मौलिक होगा। ऐसा नहीं करने वाले स्वयं अपने आप में संतुष्टि महसूस कर सकते हैं, अपनी कोई पहचान नहीं बना सकते हैं। 
पुरस्कार और सम्मान की बढ़ती चाह भी साहित्य के लिए किसी खतरे से कम नहीं है। आज कुछ रचना लिखने वाला भी अपने को साहित्यकार कहलाने का दंभ भरता नजर आता है और मन में पुरस्कार और सम्मान पाने की लालसा बलवती हो जाती है। जेबी संस्थाओं की भरमार है। आकर्षक  पुरस्कार देने वाली संस्थाएं कुकुर मुक्ता की तरह सोशल मीडिया पर जोरदार कारोबार कर रही हैं। साहित्यकारों की पुरस्कार पाने की लालसा से उनका आर्थिक हित खूब रहा है। मर्म को टटोल ने लिए एक बार ऐसी एक संस्था के कार्यकर्ता से फोन पर बात बात की तो कहने लगा आपको हमारी संस्था को कुछ डोनेशन देना होगा जिसे हम समाज सेवा में लगाते हैं। पूछा कितना डोनेशन होगा तो उत्तर मिला यही कोई 40 हजार। ऐसे पुरस्कार किस तरह के लेखन को बढ़ावा देंगे सोच सकते हैं। इस पुरस्कार की होड़ में मौलिक लेखन कहीं  पीछे 
छूट जाता है। ऐसे  साहित्यकार अपनी पहचान भी खड़ी नहीं कर पाते हैं। साहित्य के क्षेत्र में कई जगह लॉबिंग एक अलग समस्या है। असली साहित्यकार तो पंक्ति में पीछे खड़ा नजर आता है, जब की चापलूस किस्म के लोग येन केन प्रकार जुगाड कर कुछ ही समय में उनसे कहीं आगे निकलते नज़र आते हैं।
  लेखक और प्रकाशक की अलग समस्या है।  असमर्थवान लेखक तो अपनी पुस्तक का प्रकाशन ही नहीं करवा सकता। हालांकि कुछ अकादमियों की सहायता योजना में चयनित हो कर अपनी कृति का प्रकाशन करने में सफता प्राप्त कर लेते हैं । इनकी संख्या भी सीमित होती हैं। प्रकाशक का दृष्टिकोण पूर्ण व्यवसायिक होने से आज स्वतंत्र रूप से पुस्तक प्रकाशित कराना भी टेडी खीर है। प्रकाशक  अपनी मजबूर बताता है, किताब छाप भी दें तो खरीददार नहीं मिलते। पुस्तक मेलों के आयोजन से कुछ पुस्तकें बिका जाए तो भी गनीमत है।
  ऐसे माहोल में राजस्थान सरकार ने प्रदेश में मौलिक लेखन को बढ़ावा देने के लिए इस वर्ष हिंदी दिवस से दस क्षेत्रों में हिंदी लेखन के किए 50 - 50 हजार रुपए के 10 पुरस्कार शुरू कर स्वागत योग्य पहल की है। इस कदम से निश्चित ही साहित्यकार मौलिक लेखन के लिए प्रेरित होंगे। इस निर्णय की विशेता यह भी है की हिंदी साहित्य के साथ - साथ हिंदी भाषा में लिखे गए अन्य साहित्य की धराओं को भी जोड़ा गया है। सरकार की ओर से अन्य क्षेत्रों के लेखकों को पहली बार मौका मिला है। यह विचार अन्य साहित्यिक संस्थाओं तक भी पहुंचे तो नए रास्ते खुलेंगे।
  राजस्थान सहित सभी प्रांतीय सरकारों को पुस्तक क्रय नीति में भी संशोधन करने पर विचार करना होगा और पुस्तक क्रय करने के लिए संभाग और जिला स्तर के पुस्तकालयों को बजट आवंटित किया जा कर, केंद्रीय क्रय नीति को बदलना होगा। कई उदहारण हैं जब केंद्रीय स्तर पर किसी को उपकृत करने के लिए उसकी एक ही पुस्तक को बड़े पैमाने पर क्रय कर लिया जाता है, और सारा बजट इसी में खपा दिया जाता है। इन पुस्तकों को रखने की न तो पुस्तकालयों में जगह होती है और न ही इनके पाठक। पुस्तकालय प्रभारी भी अपना माथा पकड़ कर रह जाता है यह क्या हो रहा है। किसको जाहिर करे अपनी विवशता, मन मसोस कर रह जाता है।  इस नीति से स्तरीय लेखकों की पुस्तकें पाठकों को पढ़ने को उपलब्ध नहीं हो पाती तो वे भी कोसते नज़र आते हैं कैसा पुस्तकालय है, पुरानी पुस्तकों की भरमार है, नई पुस्तक उपलब्ध ही नहीं होती कभी भी।
    आज साहित्य का क्षेत्र केवल हिंदी तक ही सीमित नहीं है वरन खगोल, अंतरिक्ष,  विज्ञान, मीडिया, पर्यटन, कला - संस्कृति, पर्यावरण, चिकित्सा - शिक्षा आदि कई क्षेत्रों में साहित्य लिखा जा रहा है। जो उन पाठकों की पहुंच से बाहर है जो पुस्तकें पढ़ते हैं। सरकारों को इस दिशा में भी गंभीरता से विचार करना होगा। साहित्य को बढ़ावा देने में कुछ समाचार पत्र अपनी भूमिका का निर्वाह बखूबी कर रहे हैं जब की कई समाचार पत्रों से साहित्य एक दम नदारद आता है। आवश्यकता है फिल्म,खेल , स्वास्थ्य आदि विषयों की तर्ज पर साहित्य के लिए भी सप्ताह में एक पेज सुरक्षित रखा जाए, जिस से ज्यादा से ज्यादा साहित्यकारों को अपनी रचनाओं के प्रकाशन का अवसर प्राप्त हो सकें। स्व रचित रचना होने का प्रमाण पत्र प्राप्त किया जा सकता है।
     साहित्य के क्षेत्र में चुनौतियां होने के बावजूद भी मौलिक और श्रेष्ठ लेखन को पाठक भी नज़र अंदाज नहीं करते हैं। देखा गया है कि गंभीर पाठकों का एक नया वर्ग सेवा निवृत कार्मिकों का पैदा हो गया है, जो अपने समय को पुस्तकालयों से अच्छा साहित्य ला कर पढ़ने में  बिताते हैं। वे अच्छा साहित्य पढ़ना चाहते हैं जो उन्हें उपलब्ध नहीं होता।ईमानदारी से किए गए लेखन की प्रतिष्ठा आज भी जिंदा है। इस दिशा में काम होगा तो पाठक भी मिलेंगे और लेखक की पहचान भी अपने आप खड़ी होगी।


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