अभिशप्त नाटक का भावपूर्ण मंचन

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Published on : 28 Sep, 24 02:09

अभिशप्त नाटक का भावपूर्ण मंचन


उदयपुर  जवाहर कला केन्द्र, जयपुर में नाटक ‘‘अभिशप्त’’ का मंचन हुआ।

दी परफोरमर्स कल्चरल सोसायटी, उदयपुर के सचिव प्रबुद्ध पाण्डे ने बताया कि आज दिनांक 27 सितम्बर 2024, दी परफोरमर्स कल्चरल सोसायटी, उदयपुर के कलाकारों द्वारा उदयपुर के युवा एवं उदीयमान रंगकर्मी एवं फिल्म अभिनेता कविराज लईक़ के निर्देशन में राजस्थान के वयोवृद्ध नाट्य निर्देशक,नाटककार सरताज माथुर द्वारा लिखित नाटक ‘‘अभिशप्त’’ का मंचन किया गया।

उन्होंने बताया कि जवाहर कला केन्द्र की पाक्षिक नाट्य योजना के अन्तर्गत ‘‘ दी परफोरमर्स कल्चरल सोसायटी, उदयपुर द्वारा कविराज लईक़ द्वारा निर्देशित एवं राजस्थान के वयोवृद्ध नाट्य निर्देशक, नाटककार सरताज माथुर द्वारा लिखित नाटक ‘‘अभिशप्त’’ को चयन हुआ जिसके तहत आज संस्था केकलाकारों द्वारा अभिशप्त नाटक का मंचन किया गया। नाटक में कलाकरों के
अभिनय एवं कथा वस्तु को नाटक देखने आए दर्शकों को भाव विभोर कर दिया। इसनाटक के मंचन के दौरान ही दर्शकों ने कलाकारों के अभिनव कौशल, वेशभूषाएवं संगीत से अभिभूत होकर कर समय-समय पर ज़ोरदार तालियों से कलाकारों का अभिवादन किया।

 उन्होंने बताया कि अभिशप्त नाटक की कहानी भारत के पौराणिक ग्रंथ महाभारत के वीर योद्धा कर्ण पर आधारित है। जिसमें कर्ण को महारथी एवं मृत्युंजय बताया गया है। कर्ण कुंती के सूर्य से उत्पन्न प्रथम पुत्र थे तथा कवच और कुण्डल के साथ जन्म लेने के कारण मृत्युंजय, दिग्विजय, महारथी तथा अपने समय के सर्वश्रेष्ठ धर्नुधर थे जिस सूर्य के कारण सृष्टि है तथा सृष्टी के सभी ग्रह जिस सूर्य की परिक्रमा करते है, उसी सूर्य का पुत्र कर्ण था।
कर्ण को उनकी माता द्वारा जन्म लेते ही नदी में बहा दिया गया था।  कर्ण महायोद्धा होने के बाद भी सदैव दुत्कारा जाता था, महादानी कर्ण यह जानते हुए भी कि कवच एवं कुंडल के कारण वो मृत्युंजय है तथा उसके बिना उस पर मृत्यु का अधिकार हो जाएगा। अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध कर्ण अपने कवच और कुंण्डल स्वर्ग के देवता इन्द्र को दान में दे देता है। अपनी समस्त अच्छाइयों के बावजूद उसे श्राप दिए जाते है, और महायोद्धा होते हुए भी उसका निशस्त्र वध कर दिया जाता है। उसी कर्ण की कहानी है नाटक
‘‘अभिशप्त’’नाटक में कही, अनकही कुछ बातों व चरित्रों को अपने मौलिक युग में प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है। कर्ण इसका ध्रुव केन्द्र है। ऐतिहासिक व पौराणिक चरित्रों की उदात्ता एवं भव्यता हमें चमत्कृत एवं उल्लासित करती है किन्तु इनका मानवीय संवेदनशील रूप हमारे अन्तःकरण को झकझोर जाता है। कर्ण की पत्नी वृषाली को इस नाटक में मानवीय संवेदनाओं के साथ उभारा
गया है। पुरुष और प्रकृति का शाश्वत सम्बन्ध, शक्ति और शिव के रूप में सृष्टि के सृजन का आधार बना है। कर्म के मार्ग पर नारी, पुरुष की सहचरी के रूप में शक्ति स्वरूपा है। पार्वती शिव की, सीता राम की, राधा कृष्ण की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। कर्ण अपने समय के समस्त अन्तर्विरोधों एवं विसंगतियों को भोगते हुए जीवन जीते है, उसकी जिजीविषा व संघर्ष की अदम्य लालसा अमृत बनकर उसे ज़िन्दा रखती है। इस प्रकार अभिशप्त होते हुए भी वह अपनी कर्मठता, त्याग व अद्भुत पराक्रम के कारण ही महत्त्वपूर्ण बन जाता है। वह महाबली, दानवीर कर्ण, मृत्युंजय है। महाभारत कालीन परिवेश का यह नाटक आधुनिक युग के लिए भी प्रासंगिक है जिसमें मानवता का संदेश निहित है।

नाटक में सुदांशु आढ़ा -कर्ण, हुसैन आर.सी.-परशुराम, भूपेन्द्र सिंह चौहान -दुर्याेधन, भवदीप जैन - कर्दम ऋषि, दिव्यांशु नागदा - अश्वथामा, धीरज जीनगर -श्रीकृष्ण, प्रखर भटृ एवं विशाल चित्तौड़ा - संजय, प्रगनेश पण्डया - चित्रसेन, स्नेहा शर्मा - चन्द्रमुखी, प्रखर भटृ - सेवक, पायल मेनारिया -वृषाली, हुसैन आर.सी.- दुर्वासा, ज्योति माली -कुन्ती, भवदीप जैन -भीम, मानद जोशी- शोण की भूमिका में थे। मंच परे - वेशभूषा - अनुकम्पा लईक, मंच व्यवस्था- प्रबुद्ध पाण्डेय, सामग्री- सैयद आरीफ, प्रकाश व्यवस्था - अनुजतिवारी, रूप सज्जा-प्रग्नेश पण्डया, संगीत संचालन - खुशी पारवानी तथा नेपथ्य  - राकेश देवड़ा, जूज़र नाथद्धारा, रीना बागड़ी थे।


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