संसार की अधिकांश जनसंख्या ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करती है। बहुत बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी किसी न किसी रूप में इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाली सत्ता के होने का संकेत करते हुए उसे दबी जुबान से स्वीकार करते हैं। हमारा अनुमान व विचार है कि यदि यूरोप के वैज्ञानिकों ने वेदों को पढ़ा होता और उनके सत्य अर्थों को जाना होता तो वह कदापि ईश्वर के अस्तित्व में सन्देह न करते अपितु वह सच्चे योगी व धार्मिक होते जैसे कि वैदिक युग में भारत के ऋषि व वैज्ञानिक होते थे। संसार में प्रायः सभी प्रमुख मतों में ईश्वर को किसी न किसी रूप में माना जाता है। परमात्मा ने मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति के लिये बुद्धि दी है और इसके साथ ही सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों का ज्ञान भी दिया था। यह चार वेद और इनके सत्य वेदार्थ, सृष्टि को बने हुए 1.96 अरब व्यतीत हो जाने के बाद, आज भी उपलब्ध हैं जिनका वर्तमान समय में मुख्य श्रेय ऋषि दयानन्द और उनकी स्थापित संस्था आर्यसमाज को है। किसी मत व सम्प्रदाय, आस्तिक व नास्तिक, का कोई भी अनुयायी यदि वेदों को निष्पक्ष भाव व सत्यान्वेषण की दृष्टि से पढ़ता है तो वह वेदों की प्रत्येक बात को सत्य स्वीकार करता है। ऐसा विश्वास व निश्चय वेदों में निहित सत्य रहस्यों को पढ़कर व आत्मा में उनका निश्चय होने पर होता है। हमने भी निष्पक्ष भाव से वेदों को देखा व पढ़ने का प्रयत्न किया और हमें ऋषि दयानन्द की वेदों के विषय में कही गई सभी बातें सर्वथा सत्य अनुभव होती हैं।
ऋषि दयानन्द ही नहीं अपितु उनसे पहले वेदों की सत्यता व वेदों की ईश्वर से उत्पत्ति का उल्लेख प्राचीन काल के ऋषियों के ग्रन्थ ब्राह्मण, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण एवं महाभारत आदि में भी मिलता है। इन ग्रन्थों को पढ़कर, व वेद की मान्यताओं के विरुद्ध प्रक्षेपों को छोड़कर, मनुष्य वेदों को ही मनुष्य जाति की सबसे उत्तम व महत्वपूर्ण निधि पाता है। यदि ऐसा न होता तो ऋषि दयानन्द ने सत्यान्वेषण करते हुए वेदों को प्राप्त कर सन्तोष न किया होता और वह अपने जीवन का एक-एक पल तप व त्यागपूर्वक अहर्निश पुरुषार्थ करते हुए वेदों के प्रचार में व्यतीत न करते। ऋषि दयानन्द का पुरुषार्थ, उनका ज्ञान, उनकी तर्कणा शक्ति, सत्य को जानने के प्रति उनकी गहन निष्ठा, उनका समर्पण तथा वैदिक मान्यताओं पर सभी विद्वानों की शंकाओं के निवारण के लिये उनका सबको आमंत्रित करना, सबकी शंकाओं का निराकरण करना, देश के अनेक भागों में जाकर खुलकर प्रचार करना तथा सबको चर्चा व वार्तालाप सहित शास्त्रार्थ के लिये भी आमंत्रित करना, वेदों में ज्ञान की सत्यता का प्रमाण ही सिद्ध करते हैं। यदि वेद पूर्णतया सत्य न होते तो ऋषि दयानन्द ऐसा कदापि न कर पाते। आज की स्थिति पर विचार करें तो आज भी मत-मतान्तरों में यह साहस नहीं है कि वह दूसरे मत मुख्यतः वेदमत के अनुयायी आर्यसमाज के विद्वानों के साथ अपने मत की बातों व मान्यताओं की सत्यता एवं प्रमाणिकता की पुष्टि के लिये शंका समाधान, चर्चा व शास्त्रार्थ कर सकें। इससे सन्देश स्पष्ट है कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक व ग्रन्थ हैं तथा सत्यान्वेशी मनुष्यों के लिए वेदानुकूल मान्यतायें ही मान्य व स्वीकार्य हैं। मत-मतान्तरों की जो बातें वेदों के अनुकूल नहीं है वह अस्वीकार्य, अकरणीय व विश्वास व आचरण करने योग्य नहीं है।
वेदों ने सृष्टि के आरम्भ से ही सभी मनुष्यों व विद्वानों को उसके किसी भी सिद्धान्त व वचन पर शंका करने का अधिकार दिया है। वेदों पर की जाने वाली शंकाओं व प्रश्नों का उत्तर हमारे विद्वान व ऋषि सृष्टि के आरम्भ से शंकालुओं व भ्रान्त लोगों को देते आये हैं और सामान्य मनुष्यों के लाभार्थ उन्होंने उपनिषद, दर्शन एवं मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ लिखकर सभी प्रकार के भ्रमों का निवारण किया है। आज ऋषि दयानन्द के अनुयायियों को ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित उसके गुण, कर्म व स्वभाव के विषय में किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं है। वह संसार के किसी भी मनुष्य का ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के विषय में शंका समाधान कर सकते हैं व उन्हें वेद के सिद्धान्तों को समझा सकते हैं। वेदों से ही जिज्ञासुओं की सभी शंकाओं का निवारण होता है। ऐसी सभी शंकाओं का संग्रह कर ऋषि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में समाधान कर दिया है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य की सभी जिज्ञासाओं व शंकाओं का समाधान हो जाता है। इससे मनुष्य संतुष्ट व तृप्त होता है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य की ईश्वर की प्राप्ति हेतु साधना में प्रवृत्ति होती है। साधना साध्य की प्राप्ति के लिये की जाती है। साधक साधना द्वारा ही साध्य को प्राप्त होता है। यदि किसी मत व सम्प्रदाय में साधक को अपने इष्ट व साध्य ईश्वर की प्राप्ति न हो तो इसका अर्थ होता है कि साधना में अथवा साधक के सत्प्रयत्नों में कमी। सभी मतों को अपने अपने मतों का अध्ययन कर यह जानने का प्रयत्न करना चाहिये कि उनमें से उनके किन-किन विद्वानों ने ईश्वर वा संसार की रचना व पालन करने वाली शक्ति ईश्वर को ठीक-ठीक जाना है व उसका साक्षात्कार किया है? ईश्वर को मानना व उसकी सिद्धि न होना प्रशस्त कार्य नहीं है। यहां यह भी विचार करना आवश्यक है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी है। वह हमारी आत्मा के भीतर व बाहर भी विद्यमान है। अतः उसकी प्राप्ति का स्थान हमारी आत्मा ही हो सकती है।
मठ, मन्दिरों व नाना मतों के धर्मस्थलों में ईश्वर प्राप्त नहीं होता। वह तो साधक को साधक के हृदय में विद्यमान आत्मा में ही ईश्वर का चिन्तन, मनन, जप, स्वाध्याय, ध्यान व समाधि द्वारा प्राप्त हो सकता है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए वेद, उपनिषद, दर्शन, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आध्यात्म विषयक वैदिक विद्वानों के ग्रन्थों का स्वाध्याय ही सहायक एवं लाभदायक होता है। इनकी सहायता से मनुष्य ईश्वर को जान पाता व जान जाता है। साधक को योग साधना द्वारा ईश्वर को प्राप्त करना अर्थात् उसका साक्षात् करना शेष रहता है जिसके लिये उसे योगदर्शन में बातयें गये मार्ग का अनुसरण करना होता है। ऋषि दयानन्द व वैदिक काल के सभी ऋषि वेद निहित योग साधन करते हुए समाधि अवस्था को प्राप्त कर ही ईश्वर को प्राप्त करते थे। आज भी ईश्वर की प्राप्ति का यही मार्ग समूचे विश्व की जनता के सामने है। यही एकमात्र मार्ग है। इससे भिन्न अन्य किसी मार्ग से ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता। हम इस मार्ग की जितनी भी उपेक्षा करेंगे, उससे हम ईश्वर के निकट जाने के स्थान पर उससे दूर ही होंगे। ईश्वर को प्राप्त करना है तो हमें सच्चा निष्पाप मानव बनना होगा। हमंे अपने भोजन एवं आचार-विचारों को पूरी तरह से शुद्ध व पवित्र करने होंगे। सभी मनुष्यों व पशु पक्षियों पर दया करनी होगी। उनमें अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में उन सब प्राणियों की आत्माओं को एक दूसरे के समान देखना होगा। यह जानना होगा कि सब प्राणियों की आत्मायें एक समान हैं। सब प्राणियों की रक्षा का व्रत लेना होगा। अपरिग्रह को चरितार्थ करना होगा। ईश्वर मठ, मन्दिर व गिरिजों में नहीं अपितु वह तो साधारण कुटिया व वनों, कन्दराओं तथा नदियों के तट व संगमों के निकट शान्त स्थानों में साधना करने से प्राप्त होता है। इतिहास में ऐसा उल्लेख कहीं नहीं आता कि हमारे ऋषि मुनि महलों व अट्टालिकाओं व बड़े भव्य भवनों में रहकर साधना करते थे। वैदिक काल में वनों व आश्रमों की महत्ता इसीलिये थी कि वहां तप व साधना का अवसर सुलभ होता था। आश्रमों में विद्वानों का सत्संग मिलता था। वनों व आश्रमों में रहकर तपस्या करने वाले ज्ञानियों की शरण में जाकर ही हम साधना कर सकते हैं। अपने निवास को भी तपस्थली बना सकते हैं और आध्यात्मिक उन्नति कर प्राप्तव्य ईश्वर को पा सकते हैं। ऐसा हमें वैदिक साहित्य व ऋषियों व विद्वानों के उपदेशों का अध्ययन कर प्रतीत होता है।
संसार में ज्ञान का प्रकाश परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में वेदों के द्वारा ही किया था। वेदों से ही ईश्वर का सत्यस्वरूप प्राप्त होता है। वेदों के ही कुछ सिद्धान्त सभी मत-मतान्तरों में कुछ विकृतियों के साथ पहुंचे हैं। वेद आज भी सर्वथा शुद्ध एवं पवित्र हैं तथा इतर सभी प्रकार के वैचारिक तथा भावनात्मक प्रदुषणों से रहित हैं। वेद ही ज्ञान तथा ईश्वर विषयक ज्ञान के आदि स्रोत है। वेदों को स्वीकार कर ही संसार में शान्ति स्थापित हो सकती है। हिंसा व दुःखों को दूर किया जा सकता है। वेदों की शिक्षायें संसार के प्रत्येक मनुष्य अर्थात् मनुष्यमात्र के लिये हैं। वेदाध्ययन से आत्मा सहित मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। मनुष्य अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त होता है। वह अपने साध्य ईश्वर को जान पाता है और वैदिक साधनों का सदुपयोग कर अपनी आत्मा के भीतर ही ईश्वर का साक्षात् कर अपने जीवन को सफल कर सकता है। इस वेद मार्ग पर चलने से ही मनुष्य जीवन की सफलता व सार्थकता है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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