जनजाति संस्कृति   हमें बहुत सिखाती है  --

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Published on : 09 Aug, 24 07:08

 ----विलास जानवे

जनजाति संस्कृति   हमें बहुत सिखाती है  --


मनुष्य ने जबसे समूह में रहना शुरू किया तब से मानव जीवन ने कई परिवर्तनों का अनुभव करना शुरू किया ...यह परिवर्तन कई सदियों तक, कई सालों तक चलता रहा ...अर्थात मानव का विकास होते रहा... विकास के क्रम में ..उसका रहन सहन ,खान-पान,बोली,परिधान, रीति रिवाज़ जीविकोपार्जन के साधन अपनी भौगोलिक क्षेत्रीय विविधता और मौलिक सोच  के अनुसार  बदलता रहा


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पहाड़ों,पठारों,नदियों,वनों और दुर्गम स्थानों पर रहने वाले  इन स्वान्तः सुखाय आदिवासियों की कई बातें बदलीं लेकिन कुछ  बातें बिलकुल नहीं बदलीं ,वह है प्रकृति प्रेम, आस्था और उस  पर निर्भरता |   प्रकृति के साथ ताल मेल बनाना उसके स्वभाव और जीवन में शामिल रहा है  |  आदिवासियों ने प्रकृति को अर्थात  सूर्य ,चन्द्रमा , पहाड़ ,नदी ,वृक्ष  को भी  दैविक शक्तियों के रूप में माना और अपने प्रादेशिक नाम देकर उन पर  आस्था रखी और उनकी पूजा की | आदिवासी हमेशा धर्मभीरु रहे हैं और अपने  पूर्वजों ,पालक आराध्य देवी देवताओं को प्रसन्न रखने के लिए  वे अपने विशेष अनुष्ठान करते रहे हैं | हर जनजातीय व्यक्ति जन्म से ही कई कलाओं में पारंगत होता है जिनका प्रदर्शन अनुष्ठानों  को निभाने में सहज ही दिखता है | जनजातीय समाज के जीवन का आधार पशु पालन,खेती,वन्य उपज और मेहनत मजदूरी है | उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से ही वह घर, औजार और जीवनोपयोगी सामान का निर्माण  अपने हाथों से करते हैं |
प्रकृति  और अपने समुदाय की संस्कृति के प्रति प्रेम उसके रक्त में ही होता है |
एक बड़ा गुण है जनजातीय लोगों में .. वह है
मित्रवत व्यवहार-  महाराणा प्रताप ने  भीलों को अपना माना, यहाँ तक कि  अपने राज्य चिन्ह में समान सम्मान दिया | मेवाड़ के भील समुदाय ने भी महाराणा प्रताप को अपना स्वामी मानकर उनपर गहरी आस्था बनाए रखी | स्वाभिमानी जनजातीय लोगों ने स्वतन्त्रता आंदोलनों में भी बढ चढ़ कर भाग लिया और अपनी कुर्बानी भी दी | 
 मेहनती स्वभाव के आदिवासी  अपनी  बनाई  वस्तुओं ,पैदा की हुई उपज ,पाले हुए अतिरिक्त पशुधन, वन्योउपज, बिक्री आस पास के बड़े गावों या कस्बों के  हाट बाज़ार में  करते हैं साथ ही अपनी ज़रूरतों का सामान जैसे औजार  और हथियार  भी खरीदते हैं | कहीं मुद्रा से काम चलता है तो कहीं वस्तु विनिमय से |
हाट का बड़ा स्वरुप पारम्परिक जनजातीय मेले  होते हैं जो अक्सर  पूर्णिमा के अवसर लगते हैं , इन मेलों में दूर- दूर के गावों के जनजातीय लोग अपने अपने समूह में गाते हुए  आते हैं | मेलों  में धार्मिक और अनुष्ठानिक कार्य से भी जुड़ जाते हैं , जनजातीय तीर्थ बेणेश्वर(राजस्थान) मेले की ही बात लें ,यहाँ पूर्वजों का शाद्ध भी होता है और शादियाँ भी पक्की होती हैं , यानि एक पंथ बहु काज | मेले में सभी अनुष्ठानिक कार्य  के साथ खरीद फरोख्त तथा खान पान के बाद उन सबकी पसंद  होती है गीत, संगीत, नृत्य और मौज मस्ती | बड़े बड़े समूहों में और घेरे में ढोल , मादल ,नगाड़े और झांझ की तालपर बांसुरी और देशज वाद्यों  के संगीत और मदमाते गीतों पर यह  मस्त होकर नृत्य करते हैं | गाना ,बजाना, नाचना, खाना पीना और बांटना उनकी संस्कृति के  अंग हैं |
उनके नृत्य या तो अपने आराध्य देवी- देवताओं को प्रसन्न करने के लिए, उनसे कुछ मांगने के लिए या उन्हें धन्यवाद देने के लिए  होते हैं | कुछ नृत्य तो दिन भर किये काम की  थकान मिटाने के लिए होते हैं | इनके गायन वादन और नर्तन में गज़ब की समरसता होती है इसीलिये इनके साथ प्रकृति भी नाचती है  |  
 
जनजातीय लोग हर हाल में खुश ,मस्त और चुस्त होते  हैं | 
वन, पहाड़, नदी नाले और पशु पक्षियों के बीच पलने वाले आदिवासियों में प्राकृतिक संसाधनों का व्यावहारिक ज्ञान भरा रहता है | अपने और बड़ों के अनुभव से कई नई से नई जानकारी हासिल करते  हैं | उन्हें  पता होता है कि अगर हवा इस दिशा से चल रही है तो बारिस आ सकती है | कोई पक्षी विशेष अंदाज़ में चीख रहा है तो वह किसी बड़े वन्य पशु से खतरे के या प्राकृतिक आपदा का संकेत कर  रहा है | अलग  पेड़-वनस्पति  के फल, पत्तों ,तने और जड़ से कौन सी  औषधि और सामग्री बनती है | मधुमखियों को बिना सताए शहद कैसे एकत्रित किया जा सकता है  |उन्हें सब आता है |  
 वह तो ज्ञानी हैं  ,गुणी हैं , भले ही उन्होने  किताबें कम पढ़ी  हों या नहीं पढ़ी हों | वह नाहक किसी को भी छेड़ते  नहीं और  कोई उन्हें  छेड़े, तो छोड़ते  भी नहीं हैं | मुक्त वातावरण में रहने से उनका मन भी मुक्त और मस्त होता है |  आदिवासी   कभी भी प्रकृति के विरुद्ध नहीं जाते ,उसका अनादर नहीं करते इसी कारण वह आध्यात्म से भी जुड़े रहते हैं |
अधिकतम वनवासी जंगल में रहते हैं |  यह बात अलग है कि आदमी के स्वार्थ और नगरीकरण  के कारण अब जंगल भी कम  होते जा रहे  हैं |  हमें इन संवेदनशील  आदिवासी लोगों से सीखना चाहिए ,ये  जंगल का उतना ही दोहन करते हैं जितनी उनकी आवश्यकता होती है | लालच उनके रक्त में नहीं होता | स्वान्तः सुखाय उनका स्वभाव होता है और अपने ख़ुशी को वो आपस में  साझा कर उसे बढ़ाते हैं  और गम को बाँट कर कम करते हैं | वे वर्तमान में जीते हैं |  
 
आदिवासी संस्कृति का एक सकारात्मक पक्ष निखर कर आ रहा है | आधुनिक समाज में,फेशन को या सेहत को लें, जनजातीय उत्पादों की मांग बहुत  जोर पकड़ रही है  | लोग आधुनिक डिज़ाइनों से ऊब चुके हैं और अब वह ज्यादा एथनिक, नेचुरल और ओरगेनिक  बनना चाहते हैं | देश के संजीदा नीतिकारों ने और मार्केटिंग के होशियार गुरुओं ने जनजाति समुदाय की इन खासियतों को पहचाना और जनजातीय पर्व और उत्सवों का आयोजन बड़े बड़े महानगरों में शुरू किया |
मुझे पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र की सेवा करते हुए  राष्ट्रीय स्तर के उत्सव ‘ओक्टेव’  के द्वारा पूर्वोत्तर राज्य की जनजातीय संस्कृति को नज़दीक से जानने का अवसर मिला | उनके द्वारा  आयोजित पूर्वोत्तर के जनजातीय परिधान  के प्रदर्शनों ने अच्छे अच्छे फैशन डिजाइनरों की आखें खोल दीं  | हमारे देश में फैले इन जनजाति समुदायों के पहनावे अपने आप में विलक्षण होते हैं | मुझे प्रादेशिक जनजातीय उत्सवों ( अरण्य पर्व,हमेलो ,आपनो  मेलो, लोकोत्सव,देशज,आदि महोत्सव,शिखर उत्सव और राष्ट्रीय स्तर के उत्सव जैसे शिल्पग्राम उत्सव,उदयपुर, प्रकृति,नई दिल्ली, सप्तरंग के साथ एक कोरियोग्राफर के रूप में जुड़ने  दौरान कई कलाकारों, शिल्पकारों और गुणी जनों से  मिलने और उनकी संस्कृति को गहरी से जानने को मिला | 
-- मेरा मानना है शहर में बसे लोग अभी भी भारत की जनजातीय सांस्कृतिक वैभव से अनभिज्ञ हैं |  इसके बारे में उनकी पाठ्य पुस्तकें भी मौन हैं | सामान्य ज्ञान की पुस्तकों में भी विस्तृत विवरण का अभाव है | अच्छी बात है कि
संगीत नाटक अकादेमी,क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र, और राज्य सरकारें,  गैर सरकारी संस्थाओं के अलावा कोर्पोरेट हाउसेस भी जनजातीय कलाकारों,शिल्पकारों और गुणी जनों को अवसर उपलब्ध करा रहे हैं |  ट्राइफेड जैसे कई संस्थान एम्पोरियम और राज्य स्तर की प्रदर्शनियां बड़े बड़े शहरों में लगा  रहे  हैं  |
 इन संस्थानों द्वारा आयोजित उत्सवों में  आमजन को जनजातीय कलाकारों की प्रदर्शन कलाओं के साथ उम्दा शिल्प, रंग बिरंगे परिधान, नायाब आभूषण, आकर्षक चित्रकारी, देशी औषधि, वन्य उपज और सजावट सामग्री के प्रदर्शन देखने को मिलते हैं जिन्हें लोग कौतुहल से देखते हैं और कलात्मक शिल्प कृतियाँ   खरीदते  हैं |    लेकिन इतना ही काफी नहीं है | इसके साथ ही  नवाचार  भी होने चाहियें | समाज के विभिन्न वर्ग से उत्सवों को जोड़ने के प्रयत्न करना चाहिए, विशेषकर स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों को | मेलार्थियों को  जनजातीय खान पान(व्यंजनों ) के स्टाल  के साथ देशी स्लो फ़ूड  का भी महत्व बताना चाहिए |  औषधीय वनस्पति को शहरी घरों के गमलों में लगाने के तरीके और साथ ही ओरगेनिक खाद्य पदार्थ, मोटा धान और वन्य उपजों के फायदे बताने वाले भी स्टाल लगने चाहियें  |  यहाँ तक कि मंच पर जनजातीय पारंपरिक उत्सवी परिधानों का विशेष  प्रदर्शन यानि  फेशन शो को  भी प्रभावी तरीके से आयोजित करना चाहिए | जिससे आदिवासी जीवन की खासियतों से लोग रूबरू होंगे |
वैसे तो इंटरनेट के ज़रिये घर बैठ कर भी लोग आनंद लेते हैं लेकिन प्रत्यक्ष अनुभव के मज़े ही कुछ और होते हैं | जब भी इन कलाकारों और उनकी कला शैलियों के मंचीय प्रदर्शन    इंटरएक्टिव पद्दति से , यानि प्रभावी आपसी संवादों  के ज़रिये पेश किया जाय तो कलाकार और दर्शक ,दोनों में प्रस्तुति के प्रति रूचि बढ़ेगी और दर्शकों को मनोरंजन के साथ कई उपयोगी जानकारियाँ सहज रूप से मिलेंगी |
शारीरिक श्रम जनजाति समुदाय की विरासत है इसलिए उनकी इम्युनिटी ( सेहत ) अच्छी रहती है |   जबकि प्रकृति से दूर रहने और प्रदूषित करने वाले शहरी लोग वज़न बढाने के लिए भी दवाई खाते हैं और वज़न कम करने के लिए भी दवाई लेते हैं |  मौसम की कडाई को झेल नहीं पाते |   
बढ़ते  शहरीकरण या नगरी करण से स्वार्थ की संस्कृति पनप रही है | विकास के लिए पहाड़ कटते जा रहे हैं वन क्षेत्र में अतिक्रमण हो रहा है रेजोर्ट्स बन रहे हैं ,वन्यजीवों के प्राकृतिक निवास और संसाधनों को मिटा कर सम्पन्न  लोगों के आरामगाह बनाये जा रहे हैं  |  वनों और पहाड़ों  की अंधाधुंध कटाई निकट भविष्य में प्राकृतिक आपदा को खुला निमंत्रण है | उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश  और केरल  में हुए हादसों से शिक्षा लेना होगी | ये शास्वत है कि प्रकृति के साथ सन्तुलन से ही संस्कति का विकास हो सकता है |
मुझे  संत तुकाराम के अभंग की पंक्तियाँ याद आती हैं –वृक्ष वल्ली आम्हा सोयरी वनचरी, पक्षीही सुस्वरे आळवीती |
कुमार गंधर्व जी ने संत कबीर के भजन की एक पंक्ति याद आती है ‘ बन बन की मैं लकड़ी न तोडूं ,ना कोई झाड़ सताऊँ जी, एक निरंजन ध्याऊं जी .. गुरुजी  मैं  एक निरंजन ध्याऊं जी ....
 
आदिवासी संस्कृति हमारे आधुनिक जीवन को  खुशनुमा बनाने के लिए बहुत कुछ सिखाती है | बस, हमें उन्हें और प्रकृति को सम्मान देते हुए अपनाना है |   

 


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