चैन्नेई। एएमकेएम जैन मेमोरियल सेंटर में चातुर्मासार्थ विराजित श्रमण संघीय युवाचार्य महेंद्र ऋषि महाराज ने सोमवार को धर्मसभा में प्रवचन देते हुए कहा कि जैसे ही हमारे यहां चातुर्मास प्रारंभ होता है, भव्य आत्माएं जिनवाणी श्रवण कर जीवन को और अधिक धर्ममय, तेजोमय, आनंदमय बनाने का भाव रखते हैं। उन्होंने कहा जैन आगमों में बहुत कुछ भरा हुआ है जो गंभीर अर्थ लिए हुए है। आज भी यूरोप में विशेषकर जर्मनी में अपने हिसाब से शोध जारी है। इस समय हम भाग्यशाली हैं। आज हमारे पास आगम है, उनका रुपांतरण है। एक समय में आगम केवल सुने जाते थे। तीर्थंकरों ने जो कहा, गणधरों ने सूत्रों के रुप में संवारा। समय के अंतराल में आगमों का ज्ञान सुनते- सुनते कम होता गया। चौदहपूर्व का ज्ञान एकपूर्व तक सीमित हो गया। जब ऐसा हुआ तो आगम लिखे गए। इसका विरोध भी हुआ कि यह श्रुतज्ञान है। लेकिन आने वाली पीढ़ियों का विचार कर बचे हुए आगम का लेखन कार्य हुआ। लेखन से ही यह संभव हो पाया कि आज वह सुरक्षित है।
उन्होंने कहा कि आगम के प्रति अहोभाव की भावना, जिज्ञासा की भावना हमारे जीवन को ठोस बनाती है। 3200 आगमों में भगवती सूत्र सबसे बड़ा आगम है। भगवती सूत्र में अनेक विषयों का समावेश है। स्वयं सरस्वती के आशीर्वाद एवं प्रेरणा से आगमों की व्याख्या हुई। नौ अंगों की व्याख्या आचार्य अभयदेवसूरी ने की। भगवती सूत्र का प्रथम सूत्र बहुत अद्भुत व मनोहरी है। भगवती सूत्र को जयकुंजन की उपाधि दी गई। यह देवदृष्टिगत है। इस सूत्र को देवताओं ने आस्थापूर्वक अपनाया है।
महासती दिव्ययशाश्री जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि कमल से सरोवर और सरोवर से कमल की शोभा होती है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका से तीर्थ और जिनशासन की शोभा होती है। अगर चंद्रमा नहीं है तो गगन भी सुशोभित नहीं होता, रात्रि का आनंद नहीं होता। उसी तरह मनुष्य जीवन को प्राप्त किया है और व्रत, प्रत्याख्यान नहीं लिया तो उस जीवन की सार्थकता नहीं होती है। नियम लेना श्रावक की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। व्रत, प्रत्याख्यान संवर है। हमारी आत्मा अव्रत में चली आ रही है। मनुष्य ही सम्यकपूर्वक व्रतों को धारण कर सकता हैं। यही मनुष्य जीवन का सार हमें संज्ञान में लेना है। उन्होंने कहा जितना पाप व्रत- पच्चक्खाण टूटने से लगता है, उससे ज्यादा न लेने से होता है। सोमवार प्रातः कर्म ग्रंथ की कक्षा आयोजित हुई जिसमें युवाचार्यश्री ने कर्मों की थ्योरी की विवेचना की। इस मौके पर गुरुभक्त सुजीतकुमार ने स्तवन प्रस्तुत किया। भीलवाड़ा के राजेंद्र चीपड़ ने अपने विचार व्यक्त किए। कमल छल्लाणी ने संचालन किया था
युवाचार्य महेंद्र ऋषि ने कर्मों के स्वरूप और सिद्धांतों को समझाया*
पंचदिवसीय कार्यक्रम के अंतर्गत एएमकेएम जैन मेमोरियल मे युवाचार्य महेंद्र ऋषि म.सा. के सान्निध्य में कर्मा- प्रिंसिपल एंड प्रैक्टिकल्स कक्षा का आयोजन किया गया। इस कक्षा में 300 युवाओं ने हिस्सा लिया। यह विशेष कक्षा प्रत्येक सोमवार से शुक्रवार प्रातः 8 से 9 बजे होगी। युवाचार्यश्री ने इस विशेष कक्षा में कर्मों के स्वरूप और सिद्धांतों को बहुत ही सरल भाषा में समझाया। युवाचार्यश्री ने कहा कि पूर्व भवों में रहे हुए विविधता और उनके सुख- दुःख का क्या कारण हो सकता है, इस विषय में भारतीय संस्कृति में अनेक ज्ञानी ऋषियों ने चिंतन किया। ऐसे में जैन दर्शन ने कर्म को मुख्यता विविधता और सुख- दुःख का कारण जानते हुए बहुत गहराई से, विस्तृत रूप से इस विषय में प्रतिपादन किया है। विचार, वाणी एवं कृति द्वारा होने वाला, जो आत्मा के साथ कर्मण वर्गना का संबंध है, वह कर्म है। जब प्राणी पर से जुड़ता है, उस समय कर्मबंध होता है। यदि वह स्वयं आत्मा से जुड़ता है तो उसका कर्मबंध कम होता है और पूर्व के कर्म भी नष्ट होते हैं। मानव मन की अनेक अनबुझी गुत्थियों को सुलझाने का सामर्थ्य कर्म सिद्धान्त विवेचन में है।
उन्होंने बताया कि कर्म के आठ भेद होते हैं। पहला भेद ज्ञानावरणीय कर्म वह है, जो ज्ञान को आवृत्त कर दे। ज्ञान हमारी आत्मिक शक्ति है, जो पुस्तकों, ग्रंथों से बुद्धि द्वारा ग्रहण किया जाने वाला विषय है। उसको ग्रहण करने वाली शक्ति, वह ज्ञान शब्द से अपेक्षित है और उस शक्ति को ढक देने वाला, वह कर्म है। जैसे बादलों से सूरज का प्रकाश ढक जाता है, वैसे ही इस कर्म से जानने की स्वाभाविक शक्ति जो है, वह रुक जाती है या कम हो जाती है। ज्ञानावरणीय कर्मबंध कैसे होता है, उसका परिणाम क्या होता है एवं कैसे हम उस कर्म को दूर कर सकते हैं या कम कर सकते हैं, उसका विश्लेषण आने वाली कक्षाओं में होगा। इस विशेष कक्षा की व्यवस्था में सुरेन्द्रकुमार वेद और नीतेश बरमेचा का सराहनीय योगदान रहा।