आध्यात्म और राष्ट्र प्रेम की गंध से महकता हेमराज सिंह 'हेम', सृजन..

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Published on : 28 Jun, 24 06:06

ऐसा देश है मेरा / साहित्य डॉ.प्रभात कुमार सिंघल, कोटा

आध्यात्म और राष्ट्र प्रेम की गंध से महकता हेमराज सिंह 'हेम', सृजन..

जब बात हो पुरुषार्थ की, निज वंश  के अभिमान की,
हो  पूर्वजों  के  मान  की,भू, राष्ट्र-गौरव  गान  की।
तो प्राण ले निज हाथ में, तुम  मौत  से भी जा भिड़ो,
विश्वास रख भुजदण्ड पर,अधिकार-पथ पर जा अड़ो
सम्मुख खड़ा रिपु देखकर, डर भागना भी  पाप है,
न्यायार्थ जो लड़ता  नहीं, नर-रूप में अभिशाप है।
 विख्यात कवि रामधारी सिंह दिनकर की छाप लिए वीर रस से ओतप्रोत सृजन में कवि हेमराज सिंह ' हेम " राष्ट्र प्रेम, पुरुषार्थ, निज वंश के अभिमान, अधिकार, के लिए प्राणों को हाथ में ले कर मौत से भी टकराने की बात कहते हुए लिखते है जो न्याय के लिए नहीं लड़ता उसका मनुष्य होना भी बेकार है। ऐसे ही भावों को आगे बढ़ाते हुए वह कई प्रसंगों के मध्यम से भू, राष्ट्र-गौरव, धर्म  हित की रक्षा के लिए लिखते हैं..............
इस   भव्य-भारतवर्ष  में, दृष्टांत   कुछ   ऐसे  हुए,
इतिहास  के   सुपृष्ठों  पर, स्वर्णाक्षरों    जैसे   हुए।
निज वचन के खातिर जहाँ,रण खेलने शिशु आ गये,
कर प्राण अर्पित धर्म  पर, शिशुकाल में यश पा गये।
भर  गर्व, जिनको  ईश  ने, जयवीर  व्रतधारी  कहा,
दें  वास  अपने  लोक  में, बैकुंठ  अधिकारी  कहा।
शिशुकाल  में ही  ध्रुव ने, परमात्मा   को  पा  लिया,
प्रह्लाद को भगवान ने, निज भक्त कह अपना लिया
शुकदेव ने निज ज्ञान से, आचार्य  पद शोभित किया,
लव-कुश को बाल्यकाल में, रणजीत कह भूषित किया।
शर-कुंद शुनि-मुख देखकर, गुरु द्रोण जिससे डर गये,
शिशुकाल में ही शबर-सुत, यह कार्य-कौशल कर गये।
गोविन्द गुरु के   लाडले,  हृदयस्त   होते   हैं   जहाँ, 
भू, राष्ट्र-गौरव, धर्म  हित, नींवस्थ   होते    हैं   यहाँ।
**  वीर रस, श्रृंगार रस और अन्य रसों की शैली में लिखने वाले कवि हिंदी और राजस्थानी भाषा में गद्य और पद्य दोनों विधाओं में  कविता, गीत, दोहा, कवित्त,  कहानी और पुस्तक समीक्षा आदि लिखते हैं। इनकी रचनाओं में राष्ट्र, धर्म, समाज सेवा के भावों को साफ तौर पर महसूस किया जा सकता हैं।  आध्यात्म, प्राचीन कथानक, सामाजिक सरोकार, राष्ट्र नायक, उत्साहवर्धन और नई पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन इनके लेखन का मर्म है। बचपन से ही लिखने - पढ़ने का शोक रहा और कॉलेज के समय तक अधिकांश प्रसिद्ध साहित्यकारों के साहित्य को पढ़ चुके थे और रामधारी दिनकर जी से खासे प्रभावित रहे। वीर रस के भावों पर लिखी  इनकी एक और कविता " राष्ट्र- वंदना" की बानगी देखिए जिसमें ये सुखी और समृद्ध राष्ट्र की कामना करते दिखाई देते हैं..............
जय जन-भारत भाग्य विधाता,अखिल-विश्व में जय हो।
पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण,वैभव-पूर्ण विजय हो।
सुखद-समृद्ध परिवेश अनुपम,जन-जन हर्षित गाये,
नीति-न्याय मर्यादित शासन,पावन-शुचित-अजय हो।
विन्ध्य-हिमालय से सागर तक, जन-जन रहे हितैषी,
धर्म-कर्मरत स्वार्थ-रहित-जन,तन-मन रहे स्वदेशी,
निशि-वासर आह्लाद उमंगित,प्रेमलिप्त-शुभ-वाणी।
शीतल-मंद-सुगंधित-मारुत,निर्मल-नीर-विशेषी।
मिटे दैन्य-दु:ख, कष्ट-भयंकर,जन-जन हो सुखकारी,
त्याग स्वार्थ, नि:स्वार्थ कर्म-पथ, बढ़े निरत व्यवहारी,
भव दु:ख-नाशक रविरथ-मुखरित, मधुमय-कलरव-गायन,
परम-रुचिर बलवर्द्धक भोजन, सुखमय-मंगलकारी।
विश्वेश्वर-अवधूत-विरक्ती, परम-विज्ञ-विश्वासी।
सुकृत-कर्म उत्तम-फलदायी,धर्मरती-संन्यासी,
जय-जय महादेश-समभावी, अजर-अमर-अविनाशी।।
**  यूं ये कवि सम्मेलनों या गोष्ठियों में काव्य पाठ नहीं करते परंतु बौद्धिक साहित्यकारों के साथ काव्य पाठ करना इनको अच्छा लगता है। विद्या की देवी मां सरस्वती-वंदना के साथ - साथ श्री कृष्ण स्तुति, राष्ट्र वंदना,माँ भारती की स्तुति, साथ जो देते रहे साथी मेरा,भीष्म-सीख,
 कैकेयी की व्यथा, माँ, पिता, सिया की अग्नि परीक्षा, शबरी के राम, सैरंध्री का शाप, युधिष्ठिर का राजधर्म, गांधारी का प्रायश्चित, विधाता, मांडवी का संताप, भीष्म समाधान,जीवन प्रयाण, पुन: महाभारत होगा!, भारत-देश और
केशव ! अब आजाओ इनके काव्य सृजन के ख़ज़ाने की प्रमुख रचनाएं हैं।
**  इनका गद्य सृजन भी काफी कुछ आध्यात्म पर केंद्रित है। महाकाव्य खंड काव्य और कहानियां लिखी हैं। महाकाव्य  समरांगण  कृष्णार्जुन संवाद को केन्द्र में रखकर रचा गया है जिसमें श्री मद्भगवद् गीता की सहज भावाभियक्ति करने का प्रयास किया है , पूर्णतः मौलिक है।  महाकाव्य के कुछ अंश देखिए जहां भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म का महत्व बताते हुए कहते हैं........... 
" दिया सांख्य का ज्ञान धनंजय, जीव-जगत् का हित हो। करो सदा निष्काम कर्म तुम, कर्म-बंध से रित हो।/कर्म-समान धर्म न दूजा, इसे भूल क्यों जाते। कर्म साधना, भूषण सनर का, इसे सभी अपनाते ।/बिना कर्म के कैसे मानव, निज उत्थान करेगा ? मुक्त विकास न संभव होगा, आशा-कूप गिरेगा।/माना सत्कर्मी के आगे, विघ्न अनेक खड़े हैं। खोह-घाटियाँ-शिखर-खंड-नद, राहे रोक अड़े हैं।/रोकेंगे, टोकेंगे तुमको, बहु बन्धन बाँधेंगे। निष्कामी हो कर्म करोगे, संबल यही बनेंगे।/फल की इच्छा छोड़ मनुज को, कर्म-राह पर बढ़ना। बैठे रहना हाथ बाँध से, भला कर्म कुछ करना।/मानव का उत्थान कर्म से, इसे भूल क्यों जाते ? न्यायोचित जो कर्म न करते, कर्महीन कहलाते।/कर्म भूलकर सुख की आशा, भला कहाँ संभव है ? नियती को दे दोष जगत् में, पार्थ, मूढ़ वे नर हैं।
**  इनका खंड काव्य संग्रह "जयनाद"
 में राजस्थान के धीरोदात्त नायक/नायिकाओं का यशोगान करने का प्रयास किया गया है।
वीर योद्धा अभिमन्यु के उद्दात चरित्र के चरित्र चित्रण पर आधारित खंड काव्य "सौभद्र" प्रकाशनाधीन है। इनकी कहानियां सामाजिक विद्रूपताओं और सामाजिक सरोकारों को ले कर लिखी गई हैं जो समाज में चेतना जागृत करती हैं। स्वामी की वंश बेल, रुख़सत, गेहूँ की बालियाँ,  विसर्जन, सदमा, मृत्युभोज, बुकिंग आदि  प्रमुख कहानियां हैं। इनकी एक कहानी "बुकिंग!" का कथानक देखिए........
"डोरवेल की आवाज़ सुन यशोदा ने बालकनी से नीचे देखा, एक नौजवान खड़ा था।  यशोदा ने पूछा, " कौन हो भाई जी?"/ "जी मैं रवि हूँ।  'अंतिम संस्कार प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी' से आया हूँ। आपका फॉर्म भरना है।"/यशोदा को कुछ समझ में नहीं आया। वह पति के मुखातिब होकर बोली। " देखों न कोई आया है?"  "हाँ  जाता हूँ" । कहते हुए अशोक ने कुर्सी से सटकर रखा बेंत  उठाया और सीढ़ियों की ओर बढ़ गया।/ "जी भाई जी किससे काम है? " अशोक ने तेज श्वास छोड़ते हुए पूछा।  रवि ने बुजुर्ग अशोक को नीचे से ऊपर तक देखकर कहा, " नमस्तें बाबू जी मैं रवि हूँ, अंतिम संस्कार प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी से आया हूँ। आप दोनों पति-पत्नी का अंतिम संस्कार बुकिंग फॉर्म भरना है। " / क्या? अशोक के मुँह से एक चीख सी निकल गई। " क्या कह रहे हो तुम? तुम्हें पता भी है।" /
" नाराज न हो बाबू जी मैं कोई चोर, बदमाश नहीं हूँ। लिमिटेड कम्पनी का कर्मचारी हूँ। "  रवि ने बुजुर्ग को शांत करते हुए कहा। जो अभी तक रवि की बातों से खौफ़ में था।/ नहीं-नहीं हमें कोई फॉर्म नहीं भरना और फिर हमारे दो बेटे हैं। भरापूरा परिवार है हमें क्या जरूरत है ऐसी कम्पनी की। अशोक एक श्वास में ही सबकुछ कह गया।/ रवि ने बुजुर्ग की भावना को सम्मान देते हुए कहा, "मुझे पता है बाबू जी आपके भरापूरा परिवार है, दो बेटे हैं । पर, बाबू जी आपके बेटे सुनील ने ही कम्पनी में इस बाबत् आवेदन किया है।" / किसी अनजान व्यक्ति के मुँह से अपने  बेटे का नाम सुनकर अशोक चौक गया । /क्या, मेरे बेटे ने? / जी हाँ  बाबू जी । दोनों अभी तक दरवाजे की चौखट के बाहर ही खड़े थे। बेटे का नाम सुनकर अशोक ने रवि को अंदर बुलाकर सौफे पर बैठने को कहा, खुद भी पास के खाली सौफे पर बैठ गया। / पति की आवाज़ सुन यशोदा भी नीचे आ गई  और पति की बगल में बैठ गई। रवि ने दोनों को आश्वत करते हुए कहा, बाबू जी हमारी कम्पनी अंतिम संस्कार का कार्य करती है। इसके लिए व्यक्ति जीते जी स्वयं या उसके परिवार का कोई सदस्य निर्धारित शुल्क के साथ आवेदन करता है। तो कम्पनी उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार की सारी व्यवस्थाएँ करती है। अर्थी सजाने, श्मशान तक लेजाने, दाह संस्कार करने से लेकर अस्थि चयन, गंगा में प्रवाहित, तर्पण, पिण्ड़दान तक का सारा कार्य कम्पनी करती है। यहाँ तक की यदि आवेदक चाहे तो ब्राह्मण भोज की  व्यवस्था भी कम्पनी कर देती है । /
अशोक और यशोदा चुपचाप सुने जा रहे थे। उनके सामने कई सारे दृश्य घूमने लगे। कैसे दोनों ने अपने दोनों बेटों को पाल-पोषकर बड़ा किया था । ऐसी कौनसी इच्छा रही होंगी बेटों की  जो उन्होंने  पूरी नहीं की हो। भले ही इसके लिए उन्होंने अपनी इच्छाओं को दबा दिया था। शायद उनके मन में यही विचार रहा हो, बेटे बड़े होकर उनकी हर इच्छा पूरी कर देंगे।  दोनों बेटे पढ़ लिखकर उच्च पदों पर नौकरी कर रहे थे । बड़ा बेटा सुनील अमेरिका में एक नामी कम्पनी में अधिकारी था, जबकि छोटा बेटा रमेश दिल्ली सरकार का नामी अधिकारी था । / अशोक कलर्क के पद से रिटायेरमेंट के बाद अपने शहर में अपने ही दुमंजिलें घर के एक कमरे में पत्नी के साथ  रहता था।  छोटा बेटा रमेश कभी-कभी  साल में दो साल में एक बार आकर देख जाता था , पर कुछ सालों से तो उसने भी आना छोड़ दिया था। / घर के अन्य कमरों पर भी दोनों ने अपने-अपने हिस्सें बाँटकर ताले जड़ दिये थे।  पर दोनों पति-पत्नी ने बेटों से कभी कोई शिकायत नहीं रही। वे हर पल अपने बच्चों की खुशी के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहते। 
पर आज जो कुछ वे सुन रहे थे इसकी तो उन्होंने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी।/ क्या हुआ बाबू जी?  रवि ने अशोक को छूते हुए पूछा । बुजुर्ग की आँखों के कोने भीग गये थे। उसने धीरे से कहा, कुछ नहीं हुआ बेटा। लाओ कहाँ हस्ताक्षर करने है। रवि  दोनों के अंतिम संस्कार के फॉर्म भरकर ही लाया था। सामने रखते हुए बोला, हाँ बाबू जी यहाँ... यहाँ.. पर साइन कर दीजिए। अशोक ने नम आँखों से पत्नी को देखा फिर साइन कर कागज पत्नी की ओर बढ़ाते हुए कहा, " लो यशोदा तुम भी साइन करदो,  बेटों ने कम से कम यह तो अच्छा ही किया जो हमारी चिता को आग की व्यवस्था हो जाएँगी। यशोदा ने भी काँपतें हाथों से  साइन कर दिये, उसकी आँखों से एक बूँद टूटकर हस्ताक्षर पर जा पड़ी, जो शायद कह रही हो,  वाह रे ईश्वर!  क्या इस दिन के लिए ही हमने तुमसे रात-दिन प्रार्थना कर बेटे मांगे थे! "
** आप के सृजन पर नई दिल्ली से "मातोश्री साहित्य सम्मान", छत्तीसगढ़ से "पंडित वासुदेव मिश्र सारस्वत सम्मान" के साथ - साथ राजस्थान की विभिन्न संस्थाओं द्वारा आपको समय -  समय पर सम्मानित किया गया है। इनकी रचनाएं देश के प्रसिद्ध पत्र - पत्रिकों के साथ - साथ विदेशों में कनाड़ा, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती हैं। कई साझा संकलनों में भी रचनाएं प्रकाशित हुई हैं।
** परिचय :
राष्ट्र प्रेम, आध्यात्म और सामाजिक सरोकारों पर लिखने वाले कवि, साहित्यकार और शिक्षक हेमराज सिंह ' हेम ' का जन्म  राजस्थान के कोटा जिले की तहसील पीपल्दा के ग्राम बालूपा में 15 दिसंबर 1976 को पिता
ठाकुर राजेन्द्र सिंह और माता प्रभात कँवरके आंगन में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई और उच्च शिक्षा कोटा में। हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर कर बी. एड. यह शिक्षा प्राप्त की। वर्तमान में आप निजी क्षेत्र में व्याख्याता के रूप में विद्यार्थियों को हिंदी साहित्य की शिक्षा प्रदान कर उनमें राष्ट्र भावना का उदय करते हैं एवं निरंतर साहित्य सृजन कर साहित्य सेवा में लगे हैं। चलते - चलते........"वाणी के पहरूवे!"........…...
ओ वाणी के सजग पहरूओं, कलमवीर का फर्ज निभाना।
अधरों की अब त्याग गुलामी, वीरोचित नवदीप जलाना।
लिखो पिपासा और वेदना,शोषित,पीड़ित
,पददलितों की।
मिटे भूख, अन्याय, दासता, घृणित सहमे हताहतों की।
आँखों की मधुशाला भूलों,रक्त-क्यारियाँ सुमन खिलाना।
अधरों की अब त्याग गुलामी, वीरोचित नवदीप जलाना।
कब तक शृंगारित छंदों से, नव यौवन गुणगान करोंगे।
अधर लालिमा पाँव महावर,चाँद, सितारे मांग भरोगे।
आग भरों अक्षर-अक्षर में,तख़्त ताज मद तोड़ मिटाना।
अधरों की अब त्याग गुलामी, वीरोचित नवदीप जलाना।
देखो, नर शृंगाल बीच में,अट्हास कर रहा दु:शासन,
अबला लाज लुटाकर रोती, मूक देखता अंधा शासन,
सुदृढ़ लेखनी खड़्ग बनाकर,शोणित पी वधू लाज बचाना,
अधरों की अब त्याग गुलामी, वीरोचित नवदीप जलाना।
तुम भूषण,मीसण,वरदाई, दिनकर के कुल के जाये हो,
रक्तिम मसि में कलम डूबोकर,न्यायोचित लिखते आये हो,
निर्भय कलम चलाओं वीरो,अपना धर्म निभाते जाना,
अधरों की अब त्याग गुलामी, वीरोचित नवदीप जलाना।
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डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा


साभार :


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