अतीत के झरोखे से;अक्षय तृतीया को पंडित लाला राम जी वाजपेयी की 116 वीं जयंती पर श्रद्धांजलि  

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Published on : 11 May, 24 01:05

विंध्यक्षेत्र के लौहपुरुष थे पंडित लालाराम जी वाजपेयी

अतीत के झरोखे से;अक्षय तृतीया को पंडित लाला राम जी वाजपेयी की 116 वीं जयंती पर श्रद्धांजलि  

 

महान स्वतंत्रता सैनानी दिवंगत पंडित लालाराम जी वाजपेयी एक महान दार्शनिक,चिंतक और राजनेता,शून्य से शिखर तक की यात्रा पूर्ण करने वाले विंध्यक्षेत्र के लौहपुरुष थे। अक्षय तृतीया को जन्म लेने वाले ये महापुरुष साहस और संघर्ष का अद्भुत उदाहरण थे। वे अपनी विलक्षण प्रतिभा, राजनैतिक कौशल,अप्रतिम प्रशासनिक क्षमता एवं सह और मात के खेल में महारत होने के बलबूते पर मध्य भारत में अनेक पदों पर आसीन रहे। उनका गौरवशाली और यशस्वी जीवन आत्म स्वाभिमान और बेजोड़ संस्कारों का साक्षी रहा।

 


पंडित लालाराम जी वाजपेयी को उनके द्वारा किये गये सद्कर्मो और हाजिर जवाबी के लिए अक्षय कीर्ति मिली। अक्षय तृतीया को पंडित लाला राम जी वाजपेयी की 116 वीं जयंती उनका स्मरण करना बहुत प्रासंगिक है। 

एक कर्म योगी के रूप में 100 वर्ष की आयु (सन्  1908 से 2008 तक ) प्राप्त करने वाले वाजपेयी रियासत काल में ओरछा रियासत के प्रधान मंत्री रहें । वे स्वतंत्रता संग्राम में समर्पित भाव से कूद पड़ने वाले एक त्यागी और निस्पृह व्यक्ति तो थे ही आज़ाद भारत में विंध्य प्रदेश के गृह मंत्री के रूप में कार्य करने के अतिरिक्त उन्होंने अनेकों बार विधायक और सांसद रहते हुए अपनी पहचान एक स्वाभिमानी राजनीतिज्ञ के रूप में बनाई ।स्व.वाजपेयी जी भारत की स्वतंत्रता के पूर्व सन् 1945 में मघ्य भारत में देशी राज्य परिषद के प्रधानमंत्री, ओरछा राज्य के मुख्यमंत्री, विंघ्य के लोक निर्माण मंत्री,गृहमंत्री, विधायक, कांग्रेस के उच्च पदाधिकारी, निवाड़ी महाविद्यालय के संस्थापक एवं अजीवन अघ्यक्ष और वरिष्ठ स्वतन्त्रता सेनानी रहे। उन्होंने अपने जीवन में अपने सिद्धांतों,शर्तो और मूल्यों की राजनीति की,वे किसी भी केन्द्रीय मंत्री अथवा मुख्य मंत्री या किसी बड़े नेता के सामने कभी नहीं झुके,चाहे उन्हे किसी का भी कोप भाजन ही क्यों नहीं बनना पड़ा हो। 

वाजपेयी जी कई मुख्यमंत्रियों,तत्कालीन नेताओं एवं वरिष्ठ आई.ए.एस अधिकारियों को उनका नाम लेकर बुलाते थे,यह उनके व्यक्तित्व की एक अलग ही पहचान और गहराई थी। सभी उनका बहुत सम्मान करते थे। उनके समकालीन लोग उन्हें बताते थे कि आपको आपके बारे में मुँह पर कोई नहीं कहने वाला कि आप जो कर रहे हैं वह गलत है इसलिये आपको अपने बारे में पता ही नहीं चलेगा कि आप सही मार्ग पर हैं या नहीं ! सच्चा प्रेम और सम्मान शायद आलोचना रहित नहीं हो सकता । स्व.वाजपेयी का प्रेम और सम्मान भी आलोचना रहित नहीं था ! इसलिए उन्हें यदि कोई बात उचित नहीं लगती थी तो वे चाहे सामने वाला व्यक्ति कितने भी बड़े पद पर हो या उन्हें कितना भी लाभ या हानि पहुँचाने की स्थिति में हो,वे दृढ़तापूर्वक अपनी बात और असहमति जता देते थे ! ज्यादातर लोग छोटे छोटे स्वार्थों से घिरे एक दूसरे की पीठ थपथपाने में लगे रहते हैं या किसी पदासीन व्यक्ति से लाभ प्राप्त करने की इच्छा से दुम हिलाते रहते हैं या कोई पुरुस्कार प्राप्त करने की जोड़ तोड़ में लगे रहते हैं पर वाजपेयी उन लोगों में से नहीं थे । शिष्टाचार अपनी जगह है पर जहाँ सिद्धांत या विचार की बात हो तो चाहे सभा हो या सड़क वे किसी बात का प्रतिवाद करने में क्षण भर को भी नहीं झिझकते थे !

 

आज हैरत होती है ऐसे लोग भी राजनीति में हुआ करते थे। सच ये है कि वे आज़ादी की लड़ाई में अपने आप को होम कर देने के लिये ही अपने घर से निकले थे, मिनिस्टर भी बन जायेंगे, राजनीति भी करनी पड़ जायेगी इसका तो कभी ख्याल भी न रहा होगा उन्हें ! राजनीति में भी जब तक उन्हें लगा कि वे अपनी शर्तों पर राजनीति में नहीं रह सकते हैं तो फिर उन्होंने  राजनीति से ही नाता तोड़ लिया। फिर कभी उस ओर मुड़ कर भी नहीं देखा। उनकी पत्नी केंसर से जूझ रहीं थीं। सभी परिवारजन मध्य प्रदेश के इन्दौर केंसर अस्पताल में थे । तब उन्हें भारत सरकार द्वारा पंजाब के राज्यपाल पद के लिये मनोनीत किया गया। तब वाजपेयी ने कहा मैने तन-मन से देश की सेवा की है लेकिन इस समय मेरे परिवार को मेरी जरूरत है। अतः मैं यह ऑफ स्वीकार नहीं करने के लिए क्षमा चाहता हूँ। उन्होंने इस प्रकार राज्यपाल का पद स्वीकार नहीं किया।

 

आजादी के आंदोलन के दौरान अंग्रेज वाजपेयी जी को बग्घी में घोड़े की जगह जोतकर कोड़े मारते हुये लखनऊ से ओरछा तक लाये थे लेकिन बिना उफ किए वाजपेयी जी अपने मुँह से घोड़े की आवाज़ निकालते रहे। चन्द्रशेखर जी आज़ाद जब ओरछा में सातार नदी के पास सन्यासी के रूप में ब्रह्मचारी हरिशंकर के नाम से रह रहे थे तब  वाजपेयी जी उनके लिये जुवार की रोटी और चटनी प्याज लेकर जाते थे।

उनकी बेटी और जयपुर के निकट देश के सुविख्यात गलता पीठ के आचार्य पीठाधीश्वर अवधेशचार्य की सह धर्मिनी रजनी मिश्रा बताती है कि वे मेरे पिता थे, इस बात का मुझे जीवन पर्यंत गौरव है और रहेगा । मेरे साथ-साथ मेरे भाई बहनों तथा हमारी संततियों के अतिरिक्त अपने दीर्घ राजनैतिक तथा सामाजिक जीवन में उनके संपर्क में आने वाले सभी लोग भी इस बात का अनुभव करते है और आगे भी करते रहेंगे। आज उनके बारे में कुछ कहते हुए मैं भावुक हो रही हूँ, वे अदभुत पिता थे, प्यार का अपार सागर थे ! उनका बेहद समर्थ व्यक्तित्व आज भी मेरे चेतन और अवचेतन मन मस्तिष्क में बना रहता है एवं अपनी छाप छोडे हुए है । मैं सोते जागते आज भी एक प्रेरणा और नव चेतना उनसे पाती हूँ ! वे चाहते तो कई पदों की प्राप्ति के लिये अपने सिद्धांतों के साथ समझौते कर सकते थे,पर ये उनकी प्रकृति में ही नहीं था !


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