मनुष्य की सार्थकता मननशील होने और सत्याचरण करने में है

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Published on : 23 Feb, 24 11:02

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य की सार्थकता मननशील होने और सत्याचरण करने में है

 मनुष्य किसे कहते हैं? इसका सबसे युक्तियुक्त एवं यथार्थ उत्तर ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के स्वमन्वयामन्तव्य प्रकरण में दिया है। मनुष्य की परिभाषा एवं उसके मुख्य कर्तव्य का उद्घोष करते हुए वह लिखते हैं ’मनुष्य उसी को कहना (अर्थात् मनुष्य वही होता है जो) मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हों, उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी (मानवता, सत्य-सिद्धान्तों, देश, समाज व हितकारी प्राणियों के हितों के विरुद्ध आचरण करने वाला) चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को (मनुष्य नामी प्राणी को) कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवे।’ 

    सभी मनुष्य मननशील होते हैं अथवा नहीं, इसका उत्तर है कि संसार में बहुत कम मनुष्य ही मननशील होते हैं। मनन करने के लिये अनेक विषय होते हैं। प्रथम विषय तो स्वयं को जानना है। इस संबंध में विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि संसार में अधिकांश या सभी लोग स्वयं को नहीं जानते। वह बहुत सी बातें, ज्ञान व विज्ञान तथा इतिहास आदि को जानते हैं परन्तु वह स्वयं कौन हैं, क्या हैं, कहां से आये हैं, मरने के बाद कहां जायेंगे, क्या मृत्यु होने पर उनका अस्तित्व नष्ट हो जायेगा या रहेगा, मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होता है अथवा नहीं होता, होता है तो इसका आधार व कारण क्या होता है, आत्मा अनादि है या उत्पत्तिधर्मा है, यह अमर और अविनाशी है या मरणधर्मा और नाशवान, ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनको 95 प्रतिशत से अधिक लोग न तो जानते हैं और न जानने का प्रयास करते हैं। उनके मत, पन्थ व सम्प्रदायों के आचार्य अपने अनुयायियों को जो अविद्यायुक्त बातें बता देते हैं, वह उसी को मानते व उसके अनुसार ही आचरण करते हैं। इसी प्रकार हमारे सम्मुख सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हमारे शरीर को किसने व क्यों बनाया, इस संसार की उत्पत्ति का निमित्तकारण अर्थात् सृष्टि का कर्ता कौन है?, है भी अथवा नहीं, है तो कैसे और नहीं है तो क्यों नहीं है, ईश्वर में ज्ञान व कर्म स्वाभाविक हैं व नैमित्तिक हैं? ईश्वर सृष्टि किस पदार्थ से कैसे बनाता है। इन प्रश्नों पर भी मनुष्य को विचार करना चाहिये और इन सभी प्रश्नों के सत्य एवं यथार्थ उत्तर ढूंढने चाहियंे। अध्ययन व अनुभव से यह ज्ञान होता है कि इन प्रश्नों का उत्तर न तो वैज्ञानिकों के पास है, न ही सभी ज्ञानियों के पास और न ही सभी मत-मतान्तरों व उनके आचार्यों के पास हैं। उनकी धर्म पुस्तकें इन प्रश्नों का समाधान नहीं करती। इसका कारण यह है कि वेद के अतिरिक्त संसार के सब ग्रन्थ अल्पज्ञ जीवों की रचनायें हैं। अल्पज्ञ जीव व मनुष्य की कृति व रचना अपूर्ण होती है। उसमें अनेक न्यूनतायें होती हैं। आधुनिक विज्ञान बहुत आगे जा चुका है परन्तु आज से सौ-दो सौ वर्ष पूर्व उसके अपने सिद्धान्त व मान्यतायें भी अपूर्ण व भ्रमयुक्त थे। वैज्ञानिकों द्वारा प्रकृति में घटने वाले सत्य व असत्य नियमों का कई शताब्दियों से चिन्तन व मनन होता रहा जिसका परिणाम आधुनिक विज्ञान की मान्यतायें है। इसी आधार पर विज्ञान के नियमों का उपयोग कर अनेक उपयोगी यन्त्रों का निर्माण किया गया है। इन यन्त्रों से सारा संसार सुख व सुविधा अनुभव करता है। मनुष्य के शरीर में बुद्धि नामक एक करण भी है। परमात्मा ने मनुष्य को यह बुद्धि मनन करने के लिये ही दी है। उसका विकास व उन्नति होनी चाहिये। वर्तमान समय में मनुष्य मत-मतान्तरों की अविद्या व बन्धनों में फंसा हुआ है। सद्विद्या प्राप्ति में सरकारी व्यवस्थायें भी अनुकूल व सहयोगी नहीं हैं। इस विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है। आजकल की शिक्षा में विद्या की मात्रा बहुत अल्प है। इसका अधिकांश भाग अविद्या से ग्रस्त है। आधुनिक ज्ञान विज्ञान में ईश्वर, जीवात्मा एवं इस सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति पर भली प्रकार से ठीक-ठीक प्रकाश नहीं पड़ता। इन विषयों पर संसार में भ्रम व्याप्त है जिसके निवारण के लिये प्रयास होते नहीं दीखते। 

    मनन अपने मन से ज्ञान के अन्तर्गत आने वाले विषयों के अध्ययन व चिन्तन करने को कह सकते हैं। मनुष्य वह होता है जो ज्ञान प्राप्ति कर उसके अनुसार आचरण भी करता है। जो मनुष्य ज्ञान, सामाजिक नियमों व सत्य मान्यताओं के विरुद्ध आचरण करता है वह समाज व देश में निन्दनीय होता है। मनन की अवस्था से ऊंची एक अवस्था विवेक ज्ञान से युक्त होने की होती है। विवेक की प्राप्ति मुख्यतः उन लोगों को होती है जो वेदादि साहित्य का अध्ययन, आचरण व योगाभ्यास का विधिवत अभ्यास कर संसार में सर्वत्र व्याप्त ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल होते हैं। ईश्वर के साक्षात्कार से मनुष्य का अज्ञान पूरी तरह से नष्ट हो जाता है। वह निभ्र्रान्त हो जाते हैं। मुण्डक उपनिषद के ऋषि का वचन है ‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।।’ इसका ऋषि दयानन्द जी का किया हुआ अर्थ है ‘जब इस जीव के हृदय की अविद्या अज्ञानरूपी गांठ कट जाती है, (तब) सब संशय छिन्न होते और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी उस परमात्मा (का) जो कि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है, उस में निवास करता (स्थित होता व साक्षात्कार करता) है।’ परमात्मा में निवास का अर्थ उसका साक्षात्कार वा प्रत्यक्ष करने सहित समाधि अवस्था में जो आनन्द की उपलब्धि होती है, उस स्थिति की प्राप्ति अभिप्रेत है। विवेक को प्राप्त व्यक्ति की अवस्था जीवन-मुक्त मनुष्य की अवस्था होती है। वह जीवित तो होता है परन्तु उसका जीवन सुख व सम्पत्ति के भोग के लिये न होकर ईश्वर के चिन्तन-मनन सहित समाधि अवस्था में स्थित रहने तथा स्वार्थ का पूर्णतः त्याग कर परहित के कार्यों यथा विद्या का प्रसार, धर्मोपेदेश आदि में जीवन बिताने का होता है। ऋषि दयानन्द जी ऐसे ही पुरुष थे। आर्यसमाज में ऐसे अनेक पुरुष हुए हैं। पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द और पं. गुरुदत्त विद्याथी सहित स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती एवं आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी को भी ऐसे जीवन-मुक्त व्यक्तियों में सम्मिलित कर सकते हैं। संसार में विवेक प्राप्त व जीवनमुक्त मनुष्य न के बराबर है। विचार करने पर यही ज्ञात होता है कि हमें मनुष्य जीवन मनुष्य बनने और विवेक प्राप्त करने के लिए ही मिला है परन्तु हम इन ऐश्वर्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करते। 

    हमने जो चर्चा की है उससे यह स्पष्ट होता है कि संसार में सत्य व असत्य को जानने व सत्याचरण करने वाले मननशील मनुष्य बहुत कम हैं। अधिकांश मनुष्य अविद्या व कुछ सामान्य विद्या से युक्त स्कूली शिक्षा को पढ़कर धन सम्पत्ति कमाने तथा सुख भोग आदि में ही अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं। वह जिस मत में जन्म लेते हैं उससे बाहर निकल कर वेदाध्ययन, स्वतन्त्र अध्ययन व चिन्तन नहीं करते। उन्हें इसकी आवश्यकता भी अनुभव नहीं होती। यदि उन्हें विद्या का महत्व पता होता तो वह अवश्य विद्या प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते। ऋषि दयानन्द जी को जब विद्या का महत्व विदित हुआ तो उन्होंने इसके लिये अपना घर, अपने माता-पिता, कुटुम्बी, मित्र व ग्राम तक का त्याग कर दिया था और विद्या प्राप्ति के लिये बहुत ही संघर्ष एवं कष्ट-साध्य जीवन व्यतीत किया। यदि संसार के सभी मनुष्य ऋषि की इस भावना के पच्चीस प्रतिशत भावना वाले भी होते तो यह विश्व सबके लिये सुख का धाम बन जाता। मत-मतान्तरों पर दृष्टि डालते हैं तो विदित होता है कि वह अविद्या को दूर करने और विद्या को जन-जन में पहुंचाने के इच्छुक नहीं हैं। वह अपने मत का और अपना प्रभाव बढ़ाना ही अपना उद्देश्य व कर्तव्य समझते हैं। उन्हें ईश्वर व आत्मा को जानने तथा मनुष्य जीवन के उद्देश्य व उसको प्राप्त करने के साधनों को जानने में भी किंचित रुची नहीं है। इसी कारण से पूरे विश्व में अशान्ति है। समय-समय पर अनेक देशों में आपस में युद्ध आदि भी होते रहते हैं। कुछ मत-मतान्तर दूसरे देशों के लोगों को जो उनके मत से भिन्न मतों को मानते हैं, उनके धर्मान्तरण व मतान्तरण सहित अपनी जनसंख्या वृद्धि में लगे रहते हैं। वह यह भी सोचने का कष्ट नहीं करते कि उनके कारण किन-किन मनुष्यों को किस-किस प्रकार से कष्ट पहुंच रहा है। अतः संसार में प्रायः सभी वा अधिकांश मनुष्य सत्याचरण से प्रायः दूर ही हैं। सत्याचरण तभी हो सकता है कि जब मनुष्य को सत्य व असत्य का ज्ञान हो, सत्य के लाभ और असत्य की हानियों का भी पता हो तथा वह सत्य के पालन में दृण प्रतिज्ञ हों। ऐसा न होने पर सत्याचरण नहीं हो सकता। हमारे देश में सभी ऋषि, मुनि व योगयों सहित राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द जी आदि सत्याचरण करते थे। इनका जीवन आदर्श जीवन था। इन्हीं का अनुकरण हम सबको करना है। सत्याचरण ही मनुष्य का धर्म एवं कर्तव्य है। इससे मनुष्य का वर्तमान जीवन भी उन्नत व सुखी होता है तथा परलोक भी सुधरता है। ऋषि दयानन्द ने संसार के सभी मनुष्यों की सहायता के लिए सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ सहित पंचमहायज्ञ विधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि एवं आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थ लिखकर अविद्या को दूर करने का प्रयत्न किया था। इन ग्रन्थों से अविद्या दूर हो सकती थी परन्तु संसार के लोगों ने अपने अज्ञान व अज्ञान पर आधारित हितों के कारण इन पर ध्यान ही नहीं दिया। यह सुनिश्चित है कि यदि हम मननशील व विवेकवान् नहीं बनेंगे और सत्याचरण नहीं करेंगे तो हमारा इहलोक एवं परलोक नहीं सुधरेगा। हमारे जीवन में ‘चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात’ वाली कहावत चरितार्थ होगी। अतः हम सबको मननशील होकर, सत्य व सत्य धर्म का अनुसंधान कर सत्याचरण करना है। इस कार्य में वेद, दर्शन एवं उपनिषदों के अध्ययन सहित ऋषि दयानन्द एवं उनके अनुयायी विद्वानों के ग्रन्थ परम सहायक हैं। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्। 
-मनमोहन कुमार आर्य
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