डॉ.प्रभात कुमार सिंघल,कोटा/ राजस्थान के परिधानों में कोटा साडी ने भी अपनी खास पहचान बनाई है।मशीनीकरण के युग में हथकर्घे पर बुनी ये साडी बुनकरों की जादुई उँगलियों का बेमिसाल करिश्मा है।बुनकर अपनी अनोखी कल्पना से साडी को कलात्मक ताने- बाने में बुनते हैँ वह सादे रूप में भी मोह लेती है।
कोटा डोरिया साडी के परम्परागत हस्तशिल्प को शताब्दियों का अनुभव प्राप्त हैँ।बुनकरों का छोटा सा क़स्बा कैथून कोटा से मात्र 15 किलोमीटर पर है। साड़ी के इस शिल्प को यहां बुनकर पीडी दर पीडी जिन्दा बनाये रक्खे हैँ। चोकोर बुनाई से बनाई जाने वाली साडी को अब अनेक आकर्षक रंगोंऔर डिजाइनो में बुना जाने लगा है।सूती धागे के साथ रेशमी धागा और जरी का उपयोग बढ़ा है।सादी साडी की अपेक्षा भारी काम की साडी कम प्रायः आर्डर पर बुनी जाती हैँ।जरी के अनेक डिजाईनो के साथ -साथ बूंटी वाली साडी भी बुनी जाती है।साड़ी बुनकर तैयार होने पर फेब्रिक रंगों से पेंटिंग कर आकर्षक डिजाइनें बनाई जाने लगी हैँ तथा ब्लॉक एवम् स्क्रीन से छपाई भी की जाती है।
मशीनीकरण का प्रभाव ही कहा जा सकता है कि चार-पाँच मीटर की लंबी खड्डी को डेढ़-पोन दो मीटर की ऊंचाई में बना दिया गया है। साड़ी बुनने के लिए बैठने हेतु करीब 75 सेंटीमीटर का गहरा खड्डा बनाया जाता है।जिसमे बुनकर उसी प्रकार बैठ जाते है जेसे कुर्सी पर बैठते हैँ।
पांच साडियों का एक "पाण" (थान) होता हैँ। इसे 15 से 20 दिन में बुन लिया जाता है। साडी सादी रख कर किनारे पर एक से डेढ इंच की मोटी किनोर, बीच में जरी का एक-एक इंच का वर्ग,जरी या गोटे की बारीक़ पट्टियां ऐसे कितने ही नमूने बुनकरों के दिमाग की उपज हैँ। जरी का काम बढ़ा है। फेब्रिक पेंटिंग का कार्य एक दिन में 10 से 15 साड़ियों पर हो जाता है। सदियो पर ब्लॉक प्रिंटिंग का काम अब कम हो गया है।इसका स्थान स्क्रीन प्रिंटिग ने ले लिया है।इस से डिजाईन ओर भी आकर्षक बनने लगे हैँ।
कोटा साडी के कपड़े से अब साफा,सलवार सूट,चुनरी, ओढ़ना,कमीज,कुर्ता भी बनाया जाने लगा है। इनके आधुनिक डिजाइनों के लिए समय-समय पर प्रशिक्षण आयोजित किये जाते है। पहले की अपेक्षा मजदूरी में इजाफा हुआ है तथा भौगोलिक उपदर्शक चिन( जी.आई) मिलने से असली साडी की पहचान आसान हो गई है और नकली सदी से उपभोक्ताओं को निजात मिली है। वैसे बाजार में असली डोरिया साडी की अपेक्षा नकली साडी काफी कम दामों पर मिलती है।
कच्चा मॉल चाइना एवम् कोरिया का रेशम मुम्बई एवम् बेंगलूर से मंगवाया जाता है। कुछ बड़े बुनकर ही कच्चा मॉल मंगवाते है और बुनकरों को बुनाई के लिए देते है।तैयार मॉल कोटा के रामपुरा स्थित भेरू बाजार में जाता है। यहाँ 46 व्यापारी कोटा साडी का व्यापर करते है।बड़े व्यापारी माल भारत के बड़े शहरों सहित निर्यात भी करते है। सर्वाधिक माल की खपत गर्मियों में होती है।
कोटा डोरिया साडी बनाने का काम पगड़ियाँ बनाने के साथ शुरू हुआ। माना जाता है कि वर्ष 1761 में कोटा के तत्कालीन राज्य के प्रधानमंत्री झाला जालिम सिंह ने मैसूर से कुछ बुनकरों को बुलाया था।सबसे कुशल बुनकर मेहमूद मसूरिया था जो चन्देरी का रहने वाला था।उसने सबसे पहले हथकरघा उद्योग की स्थापना की। शुरू में पगड़ियाँ बुनी जाती थी जो आगे चल कर साडी बुनी जाने लगी।
कैथून में करीब एक हज़ार बुनकर परिवार इस हस्तशिल्प के कार्य में लगे है।कैथून के साथ-साथ कोटसुआ,रोटेदा,मांगरोल,बूंदी,केशवरायपाटन,इटावा एवम् अटरू में भी करीब एक हज़ार करघे लगे है। कोटा साडी का वार्षिक उत्पादन करीब पांच करोड़ रुपए तक होता है एवम् करीब 90 प्रतिशत खपत भारत के बाजार में एवम् 10 प्रतिशत स्थानीय बाजार में होती है। ज्यादातर माल कोलकाता एवम् बीकानेर जाता है तथा कुछ माल प्रवासी भारतियों द्वारा विदेशों में भी जाता है।
परम्परागत कोटा साड़ी बुनने के कार्य में अधिक लाभ नहो होने से अब युवा अन्य रोजगार में भी जाने लगे है। हस्तशिल्प के इस कार्य को बनाये रखने के लिए सरकार ने अनेक कदम उठाये हैँ। कैथून में सामुदायिक बिक्री केंद्र खोला गया है।रामपुरा में कोटा साड़ी बाजार बनाया गया है। बबुनकारों को देश के क्राफ्ट मेलों में प्रदर्शन हेतु भेजा जाता है। बुनकरों का बीमा किया जाता है।समय-समय पर स्वाथ्य परीक्षण किया जाता है। परम्परागत शिल्प में आधुनिक तकनीक का समवेश करने के लिए विशेषज्ञो से प्रशिक्षण दिया जाता है। कोटसुआ की जेनब जैसे कुछ बुनकरों को रास्ट्रीय ,राज्य एवम् ज़िला स्तरीय पुरुष्कार से सम्मानित किया गया है।
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