(mohsina bano)
साहित्य को आज भी ‘सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम्’ का पर्याय माना जाता है। यह समय का सत्य, समाज का शिव और प्रकृति का सौंदर्य है। हजारों वर्षों से यह शब्दों की महाभारत, युद्ध और शांति के मध्य बहती रही है। विकास इसे ऊर्जा देता है और मनुष्य की खोजें इसे प्रासंगिक बनाती हैं।
साहित्य मनुष्य द्वारा, मनुष्य के लिए, समय और समाज के बीच खड़ा रहता है। राजा और प्रजा, प्रकृति और मनुष्य, जीवन और जगत के मध्य यही साहित्य होता है। इसमें मनुष्य के चिंतन की गहराइयों से उठती सभी जिज्ञासाएं निवास करती हैं। यह शब्द-ब्रह्म चेतन और अवचेतन का प्रतिरूप है, जिसकी गूंज वेदों, वाल्मीकि और वेदव्यास की वाणी में सुनाई देती है।
यह साहित्य मनुष्य की आत्मा से जन्म लेकर समय की अनंत यात्रा करता है। इसमें न सिर्फ विचारों का संधान है बल्कि स्मृतियों का विस्तार भी है। यह संविधान से ऊपर संवेदनाओं का घोष है, और जिजीविषा का संघर्ष भी। कभी इसे कालिदास गाते हैं, कभी कबीर सुनाते हैं, कभी विवेकानंद में दर्शन बनता है तो कभी सूरदास में सजीव भावनाएं।
साहित्य केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि मन, विचार और विवेक का विश्लेषण है, जिसे दादी कहती है और पोते सुनते हैं। इसकी सीमाएं न विश्वविद्यालय तय कर सकते हैं, न मीडिया इसे दबा सकता है। परिवर्तन की आंधियां इसमें भी उठती हैं, और यह इसलिए ही समय और चेतना के मध्य प्रतिध्वनित होता है।
साहित्य कोई स्थिर पदार्थ नहीं है; यह निरंतर बदलती अवधारणाओं का जीवंत दस्तावेज़ है। यह मनुष्य के जीवन का विस्तार है, जहां गीत, कविता, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा, रिपोर्ताज सभी विधाएं एक ही घाट पर सृजन की डुबकी लगाती हैं।
शेक्सपीयर से लेकर फैज़ तक, टैगोर से लेकर प्रेमचंद तक, सभी शब्दपुरुष इस साहित्य के सहयात्री हैं। यह कभी महाभारत बनता है, कभी रामायण, कभी अतिशयोक्ति बनकर चौंकाता है तो कभी उपमा बनकर स्मृति में रच-बस जाता है।
साहित्य ही है जिसने सुकरात, अरस्तु, आइंस्टीन जैसे महान व्यक्तित्वों को स्वर दिया। यह मनुष्य के पराज्ञान और मनोविज्ञान का आईना है। न केवल लिखा गया साहित्य, बल्कि वह भी जो अनकहा है, जिसकी अभिव्यक्ति अभी बाकी है—वही भी साहित्य है।
यह संसार की हर भाषा और बोली में बहता है। इसे सत्ता, पूंजी या व्यवस्था दबा नहीं सकती। जितना इसे रोका जाता है, उतना ही यह लोक से लोकोत्तर बनकर गूंजता है—प्रेम, शक्ति और भक्ति की त्रिवेणी की तरह, चेतना के उद्भव की तरह।
हमारे देश में साहित्य और संस्कृति को सहचर माना गया है। यह दर्शन और चन्द्रमा की सोलह कलाओं की तरह मन की लीलाओं का वृन्दावन है। साहित्य केवल इतिहास नहीं, प्रागैतिहासिक मनुष्य की समझ का सूत्र भी है।
यह ना तो केवल साधु-संन्यासियों का मंच है, न किसी विद्रोह का घोष। यह चिंतन की गंभीर परंपरा है जो एक मनुष्य से नहीं, लोकमंगल की भावना से पोषित होती है।
यह साहित्य न केवल दिशा दिखाता है, बल्कि मन, वचन और कर्म की परछाइयों में सत्य का उद्घाटन करता है। इसमें आरक्षण नहीं, लेकिन न्याय है; स्वायत्तता है, लेकिन सामाजिक उत्तरदायित्व भी है। यह सृजन विरोधी किसी प्रवृत्ति को स्वीकार नहीं करता।
इस साहित्य की चौखट पर हम समय, समाज और मनुष्य की हर दस्तक सुनेंगे। कुछ कहेंगे, कुछ सुनेंगे, और इस क्रम में रचते जाएंगे। बाजार की चिंता नहीं होगी, मानव कल्याण और सृजन की होगी। सभी बहसें होंगी, लेकिन निर्णायक केवल समय का सत्य होगा।
यह स्तंभ ‘उल्लेखनीय’ आगे और विस्तृत होगा, वन-प्रांत तक पहुंचेगा, गद्य-पद्य के उदाहरण लाएगा और सृजन की जाजम बिछाएगा। पढ़ते रहिए, क्योंकि साहित्य का सृजन अभी बाकी है।