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प्रेम: भारतीय संस्कृति का आधार और चेतना

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14 Feb 25
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प्रेम: भारतीय संस्कृति का आधार और चेतना

डॉ. अपर्णा पाण्डेय

प्रेम वह शक्ति है जो गूंगे को वाचाल, पत्थर को मोम, राक्षस को मानव, और पशु को देव बना दे। यह हृदय में ईर्ष्या को मिटाकर स्नेह की सुगंध बिखेरता है, जीवन को उत्साह और उल्लास से भर देता है। प्रेम केवल भावना नहीं, बल्कि जीवन का प्राण, भारतीय चिंतन का पोषक और मानवीय संवेदनाओं का चरमोत्कर्ष है।

"रसो वै स:" और ब्रह्मानंद सहोदर उसी प्रेम की अनुभूति है, जो हर रूप में जीवन में दृष्टिगोचर होता है। तभी तो मीरा प्रेम की दीवानी होकर कह उठती हैं—
"हे री! मैं तो प्रेम दीवानी, मेरो दरद न जाने कोय।"

ब्रज की गोपियां भी कृष्ण प्रेम में मग्न होकर गाती हैं—
"कोऊ माई लहै री गोपालहिं। दधि को नाम स्याम सुंदर रस, बिसरि गयो ब्रज बालहिं।।"

कृष्ण भी ब्रज की गलियों को याद कर व्याकुल हो उठते हैं—
"ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहिं। हंस सुता की सुंदर कगरी, अरू कुंजन की छांही।।"

परंतु जब यही दैवीय प्रेम केवल दैहिक धरातल तक सीमित हो जाता है, तो वह वीभत्स और कुत्सित रूप धारण कर लेता है। आज का समाज इसका सजीव उदाहरण है। प्रेम को उसके शुद्ध, दिव्य रूप में रहने दें, क्योंकि वही वंदनीय और श्लाघनीय है।

शायर गुलज़ार जी के शब्दों में—
"प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।" 💞


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