(कृष्ण बिहारी पाठक, व्याख्याता हिंडौन सिटी से डॉ. प्रभात कुमार सिंघल का साक्षात्कार)
अपनी सीमाओं के बावजूद बालमन को शिक्षित और संस्कारित करने में परीकथाओं की भूमिका असंदिग्ध मानी जाती है। हाल ही में नाथद्वारा में आयोजित दो दिवसीय साहित्य मंडल के समारोह में कृष्ण बिहारी पाठक से बाल साहित्य में परीकथाओं की प्रासंगिकता पर चर्चा हुई। उन्होंने परीकथाओं के महत्व को विभिन्न पहलुओं से समझाया।
परीकथाओं का योगदान
पाठक का मानना है कि परीकथाएं बच्चों के संज्ञानात्मक, भावात्मक, नैतिक और तार्किक विकास में सहायक होती हैं। यह कहानियां न केवल बच्चों की कल्पनाशक्ति को विकसित करती हैं बल्कि उन्हें शब्दावली, संस्कृतियों के आदान-प्रदान, और समस्याओं के समाधान का बोध भी कराती हैं।
बाल साहित्य की प्राथमिकताएं
उन्होंने बताया कि बाल साहित्य में दो पहलुओं का होना अनिवार्य है:
परीकथाओं की व्यापकता
पाठक ने स्पष्ट किया कि परीकथाओं में परी का होना अनिवार्य नहीं है। अचरज भरे पात्रों और अतिप्राकृतिक शक्तियों से सजी कहानियां भी परीकथाओं की श्रेणी में आती हैं। ये कहानियां मौखिक परंपराओं से लेकर लिखित रूपों में विकसित हुईं और बालमन में कल्पनाशीलता का संचार करती हैं।
कल्पनाशीलता का महत्व
उन्होंने इस बात पर बल दिया कि कल्पनाशक्ति मानव विकास का आधार है। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने भी कहा था, "यदि बच्चों को बुद्धिमान बनाना है, तो उन्हें परीकथाएं पढ़ाएं।" यह कथन परीकथाओं की प्रासंगिकता को रेखांकित करता है।
नैतिकता और शिक्षा
नैतिक परीकथाएं बच्चों को जीवन के संघर्ष, मूल्यों और आदर्शों से परिचित कराती हैं। ये रिश्तों को समझने, संघर्षों का सामना करने और मानसिक स्थिरता विकसित करने में मदद करती हैं।
आलोचना और यथार्थ से दूरी
हालांकि, कुछ लोग परीकथाओं को यथार्थ जीवन से दूर मानते हैं। लेकिन पाठक का कहना है कि परीकथाएं सकारात्मक दृष्टिकोण और ऊर्जा प्रदान करती हैं। ये कहानियां बच्चों को जीवन के हर पहलू से जोड़ने में सहायक होती हैं।
सार्वभौमिकता और शब्दावली
परीकथाओं का वितान विस्तृत है। ये कहानियां बच्चों को स्थानिक से वैश्विक स्तर तक संस्कृतियों और जीवन मूल्यों से परिचित कराती हैं। साथ ही, इनसे उनकी शब्दावली में भी उल्लेखनीय वृद्धि होती है।
निष्कर्ष
कृष्ण बिहारी पाठक का मानना है कि परीकथाएं बच्चों के मानसिक और नैतिक विकास का आधारभूत स्तंभ हैं। ये जीवन मूल्यों, कल्पनाशक्ति और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का माध्यम बनती हैं। अतः परीकथाओं को बाल साहित्य में उचित स्थान देना आवश्यक है।