वे दिन अब बीत चुके हैं जब राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात की लोक संस्कृतियों के संगम दक्षिणांचल के गांधीवादी 12 फरवरी को उत्सव के रूप में मनाते थे।
बांसवाड़ा और डूंगरपुर के मध्य स्थित बेणेश्वर धाम, जहां माही, सोम और जाखम नदियों का पावन संगम होता है, वर्षों तक गांधीवादी आदर्शों का केंद्र रहा। 1948 में वागड़ गांधी पद्मभूषण स्व. भोगीलाल पंड्या ने यहां महात्मा गांधी की अस्थियों का विसर्जन किया, जिसके बाद हर साल 12 फरवरी को यह स्थान गांधी अनुयायियों, स्वतंत्रता सेनानियों, सर्वोदयी विचारकों और खादी कार्यकर्ताओं से भर जाता था।
गांधी मेले की शुरुआत 30 जनवरी को गांवों में पदयात्राओं से होती थी, जिसमें गांधी के विचारों का प्रचार-प्रसार किया जाता। 11 फरवरी की रात बेणेश्वर पहुंचने के बाद 12 फरवरी को संगम स्थल पर प्रार्थना सभाएं, सत्संग, भजन और संकल्प समारोह आयोजित किए जाते थे। स्व. जगन्नाथ कंसारा द्वारा शुरू की गई परंपरा के अनुसार, कार्यकर्ता चरखे से काते गए सूत की घुंडियां समर्पित करते थे, जो रचनात्मक कार्यों में प्रयुक्त होती थीं।
गांधी मेले के दिन शांति, अहिंसा और सर्वधर्म सद्भाव का संदेश दिया जाता था। स्वतंत्रता चेतना गीतों और प्रभात फेरियों से बेणेश्वर धाम गूंज उठता था। संगोष्ठियों में ग्रामदान, भूदान, खादी और ग्रामोद्योग के माध्यम से समाज को आत्मनिर्भर बनाने की योजनाएं बनाई जाती थीं।
लेकिन अब इस मेले की परंपरा समाप्त हो चुकी है। वर्षों तक गांधीवादी विचारकों और सर्वोदयी कार्यकर्ताओं की भागीदारी बनी रही, परंतु वर्तमान में न तो गांधीवादियों में पहले जैसा उत्साह रहा और न ही उनके सिद्धांतों को आगे बढ़ाने वालों ने इस पर ध्यान दिया।
आज बेणेश्वर धाम पर गांधी मेला एक इतिहास बन चुका है, जो कभी गांधीवादी मूल्यों का प्रतीक था, परंतु अब मात्र स्मृतियों में सिमट गया है।