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एक कुम्भ मेला आदिवासियों का… जो हर वर्ष दक्षिणी राजस्थान के बेणेश्वर में भरता हैं !!

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11 Feb 25
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एक कुम्भ मेला आदिवासियों का… जो हर वर्ष दक्षिणी राजस्थान के बेणेश्वर में भरता हैं !!

दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी बहुल वागड़ अंचल के डूंगरपुर और बांसवाड़ा जिलों की सीमाओं पर स्थित बेणेश्वर धाम पर सोम,माही और जाखम (लुप्त) नदियों के त्रिवेणी संगम पर माध पूर्णिमा को हर वर्ष आदिवासियों का एक विशाल कुंभ मेला लगता हैं । इस वर्ष जब प्रयागराज (इलाहाबाद) में 144 वर्ष बाद महाकुंभ का भव्य आयोजन हो रहा हैं तब बेणेश्वर में भी इस बार 12 फरवरी माघ पूर्णिमा को मुख्य मेला भरेगा। इस दृष्टि से इस बार बेणेश्वर मेला का अपना एक अलग ही महत्व होगा । यह देश का सबसे बड़ा आदिवासी मेला है जिसमें लाखों लोग पवित्र संगम में डुबकी लगाने के साथ ही यहाँ अपने पारंपरिक अनुष्ठान स्नान,पूजा -अर्चना  और तर्पण आदि के साथ अपने मृत परिजनों की अस्थियों का विसर्जन भी करते है।

वागड़ के महान भविष्यवेता मावजी महाराज के साबला (डूंगरपुर ) स्थित मन्दिर के निकट एक अद्वितीय टापू पर लगने वाला बेणेश्वर मेला हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ महीने के शुक्ल एकादशी से शुरू होता है। बेणेश्वर मेला का आयोजन माही और सोम नदियों द्वारा निर्मित डेल्टा में किया जाता है। बेणेश्वर नाम यहाँ बने हुए शिव मंदिर में स्थित पवित्र शिव लिंग से लिया गया है। बेणेश्वर का अर्थ 'डेल्टा का मास्टर' भी माना जाता हैं । किवदन्ती है कि नवाटापरा गांव की एक गाय रोज इस शिव लिंग पर अपने थनों से प्रवाहित होने वाले दूध से भगवान का दुग्धाभिषेक करती थी । गाय का मालिक अचरज में रहता था कि गाय के भरे थन अनायास खाली कैसे हों जाते हैं ? एक दिन उसने गाय का पीछा किया और यह देख स्तब्ध रह गया कि गाय शिव लिंग पर अपने थनों से दुग्धाभिषेक कर रही हैं । अचानक अपने मालिक को देख हड़बड़ाहट में गाय मुड़ कर भागी लेकिन उसके खुर से शिवलिंग खण्डित हो गया और तब से ही यहाँ खण्डित शिव लिंग की ही पूजा हो रही हैं । त्रिवेणी नदियों के पवित्र संगम बेणेश्वर धाम पर शिव,विष्णु और ब्रह्मा त्रिदेवों के मन्दिर हैं । यहाँ वाल्मीकि मन्दिर भी हैं जिसके प्रति आदिवासियों की गहरी आस्था हैं। बैणेश्वर के किनारे अनवरत प्रवाहमान माही तथा सोम-जाखम नदियों के संगम स्थल पर आयोजित यह मेला आदिवासियों का सबसे अनूठा मेला है। यही कारण है कि इसे 'वनवासियों का महाकुंभ' भी कहा जाता है।

माघ शुक्ल पूर्णिमा तक चलने वाले इस विशाल मेला में राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात से लाखों आदिवासी आते हैं। मेलार्थी सोम और माही नदियों के पवित्र संगम पर डुबकी लगाने के पश्चात भगवान शिव के मंदिर तथा आसपास के मंदिरों में पूजा-अर्चना करते हैं। यहां स्थित भगवान शिव मंदिर के निकट भगवान विष्णु का भी मंदिर है, जिसके बारे में मान्यता है कि जब भगवान विष्णु के अवतार मावजी ने यहां तपस्या की थी, यह मंदिर उसी समय बना था ।

बेणेश्वर मेला माघ शुक्ल एकादशी पर ध्वजारोहण की रस्म के साथ प्रारंभ होता है। मावजी महाराज के 9 वें उत्तराधिकारी हरि मंदिर, साबला के पीठाधीश्वर अच्युतानंद महाराज बेणेश्वर मेले में हजारों श्रद्धालुओं के साथ एक जुलूस के रुप में साबला से बेणेश्वर धाम आते हैं और ध्वजारोहण के साथ भारी तादाद में उपस्थित मेलार्थियों के साथ मेले की विभिन्न लोक रस्मों और पूजा-पाठ में हिस्सा लेते हैं। आदिवासी भी भारी समूहों मे अपनी पारंपरिक पोशाकों को पहने नाचते और गाते एवं अपने परम्परागत वाद्य यन्त्रों को बजाते हुए बेणेश्वर आते हैं। 

बेणेश्वर मेला वास्तव में तीन मेलों का मिलन है। एक मेले का आयोजन भगवान शिव को समर्पित हैं, जिसे बाणेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है, दूसरा मेला संत मावजी की पुत्रवधू जानकुंवर द्वारा विष्णु मंदिर के लिए निर्माण कार्य पूरा करने के लिए आयोजित किया जाता है।साबला हरिमन्दिर के मठाधीश एक विशाल जुलूस के साथ मेला स्थल तक पहुंचते हैं और नदी में डुबकी लगाते हैं फिर लक्ष्मी नारायण मंदिर में रात्रि के समय पीठाधीश्वर की आरती की जाती है और रासलीला का आयोजन किया जाता है। तीसरा मेला आदिवासियों की श्रद्धा से जुड़ा हैं जिसमें वे पवित्र नदियों के संगम में स्नान, पूजा अर्चना और तर्पण  तथा मृत परिजनों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।बेणेश्वर महा मेले के सभी दिनों भगवान के मंदिरों में भिन्न -भिन्न प्रकार के भोग लगते हैं ।माघ शुक्ल पूर्णिमा को हलुआ (शीरा), माघ कृष्ण प्रतिपदा को दाल-बाटी और चूरमा, द्वितीया को दाल-बाटी, तृतीया को पूड़ी-शीरा, चतुर्थी को दाल-रोटी, पंचमी को मोदक, दाल-बाटी आदि भोग लगाए जाते है। हजारों आदिवासी मेले में जुट कर  मावजी महाराज की आगम वाणियाँ सुनते हैं भजन कीर्तन करते हैं और अगले वर्ष के लिए खुशहाली की कामना करते हैं।

बेणेश्वर धाम में माघ पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर मेलार्थी अपने मृत परिजनों की मुक्ति की कामना भी करते हैं और संगम तीर्थ में अस्थियाँ विसर्जित करते हैं। इस मेले में आदिवासी पंडितों से पूजा करवाते हैं और परिजनों सहित संगम में कतारबद्ध खड़े होकर कमर तक पानी में उतर कर दक्षिण दिशा की ओर मुख कर अस्थियों का विधिवत विसर्जन करते हैं। 

इस भव्य मेले में जादुई तमाशे और करतबों का प्रदर्शन और शाम में लोक कलाकारों द्वारा प्रस्तुत संगीत-नृत्य के कार्यक्रम पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। आदिवासियों द्वारा संगम तटों एवं मध्यवर्ती छोटे टापुओं पर आटा गूँधने तथा सरकंडे जलाकर बाटियाँ सेंकते हैं तथा गुड़, शक्कर, घी मिलाकर उसका चूरमा भी बनाते हैं और भगवान को दाल, बाटी चूरमा भोग लगाकर परिजनों के साथ सामूहिक भोजन करते हैं। इस मेले में कई सरकारी और गैर सरकारी प्रदर्शनियां, सांस्कृतिक कार्यक्रम और करतब भी दिखाए जाते हैं। मेला बाजारों में इस जनजाति बहुल वागड़ अंचल के सभी प्रकार के लघु उद्योगों एवं कुटीर उद्योगों और अन्य उत्पादों की जीवंत झांकी दिखाई देती हैं । इन मेला बाजारों में छोटे-बड़े भोजनालय, जलपान गृह, मनिहारी, बर्तन, गन्ने के रस, लोहा, काष्ठ, दूध, खिलौनों, प्लास्टिक सामग्री, चाय, पाषाण सामग्री, खादी वस्त्र, साज-सज्जा, श्रृंगार, जूते-चप्पल, सिले-सिलाए वस्त्र आदि की दुकानें भी लगाई जाती है। 

लोगों की मान्यता है कि बेणेश्वर के त्रिवेणी संगम से जुड़ी नदी सोम यदि पहले पूर्ण प्रवाह के साथ बहे तो उस वर्ष चावल की अच्छी फसल होती है।वहीं माही में पहले जल प्रवाह होने पर समय ठीक नहीं माना जाता है। बेणेश्वर धाम का वैद पुराणों में भी उल्लेख हैं और इसे विष्णु भगवान के वामन अवतार तथा निष्कलंक कलगी अवतार से भी जोड़ कर देखा जाता हैं ।पिछलें वर्षों में संगम स्थल के पास नदियों के गहरे पानी में प्राचीन भग्नावशेष मिलना भी बताया जाता है ।

बैणेश्वर में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और राजीव गाँधी सहित देश के अन्य कई नेताओं  ने भी पूजा अर्चना की हैं । प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी लोक सभा चुनाव में 14 अप्रैल 2014 को मोदी चुनावी सभा को संबोधित करने बेणेश्वर आए थे। वे उस समय गुजरात के सीएम थे। उन्होंने चौपड़े में अपने भविष्य के बारे में जाना था और उनके प्रधानमन्त्री बनने की भविष्यवाणी सही साबित हुई थी।

बेणेश्वर दक्षिणी राजस्थान के ऐतिहासिक शहर डूंगरपुर से करीब 70 किलोमीटर और बांसवाड़ा एवं सलूम्बर से 45 किमी की दूरी पर स्थित है । इसका निकटवर्ती उप खण्ड मुख्यालय आसपुर मात्र 24 किलोमीटर दूर है। निकटवर्ती उदयपुर का महाराणा प्रताप डबोक हवाईअड्डा करीब 130 किमी दूर हैं ।


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