चिन्ता हरेक इंसान के जीवन में वह प्रमुख कारण है जो आदमी के समझदार होने से शुरू होती है और अंतिम साँस तक न्यूनाधिक रूप में हावी रहती है और इसका असर हमारे सभी चारों पुरुषार्थ पर पड़ता है चाहे वह धर्म-कर्म से जुड़े हुए हो या अर्थ अथवा मोक्ष से ।
चिन्ता मूल कारण भविष्य की आशंकाओं से होता है। जो इंसान जितना अधिक आंशकित होता है उतना ही अधिक चिन्तित और दुःखी रहेगा। मूल रूप में देखा जाए तो आशंकाए अपने आप में निराधार होती हैं। उनका न कोई आकार होता है न ही कोई वास्तविक वजूद। बिना जड़ की अमरबेल की तरह सदियों से यह छायी हुई है।
जनजीवन और मानस पटल पर यह आशंका वह काल्पनिक कारक है जिसका भौतिक रूप में कहीं कोई अस्तिव नहीं होता है। मगर ब्रह्माण्ड से लेकर पीड़ा तक इसकी निराकार व्याप्ति का परिणाम देती किसी न किसी रूप में नज़र आ ही जाती है। आंशकाओं को जो अपने मन मस्ष्तिक में स्थान दे देते हैं वह फिर ऐसी जड़ें जमा लेती है कि पीड़ा के अस्तित्व तक इनका आत्मघाती साहचर्य बना रहता है।
जिन लोगों में आंशकाएं होती हैं उनका मूल कारण आत्म विश्वास में कमी होने के साथ ही श्रृद्धा का अभाव होता है। आंशकाओं का खात्मा करना हर किसी के बस में नहीं होता है। जो लोग जितने अधिक संवेदनशील होते हैं उतने ही आंशकित व चिन्तित रहते हैं।
खूब सारे लोग हमारे आस-पास हैं, सम्पर्क में होते हैं और रोजाना के लोक व्यवहार में दिखते हैं। इनमें हमारे निकटतम नाते-रिश्तेदार भी हैं, पास-पड़ोसी तथा मिलने-जुलने वाले भी। इनके पास जमीन-जायदाद है, रहने के लिए दो-दो, चार-चार मकान हैं, करोड़ों की सम्पत्ति है, लाखों की नौकरी और पेंशन का सुख पा रहे हैं, भरा-पूरा परिवार है और भगवान ने वो सब कुछ दिया है जो होना चाहिए।
फिर भी ये लोग कुत्तों की तरह जीवन जी रहे हैं, पराये धन और वस्तुओं पर ललचाये रहते हैं और चाहते हैं संग्रह। इनकी इच्छा रहती है कि उन्हें सब कुछ मुफ्त में मिलता रहे, जब तक जिन्दा रहें, और इसके बाद उनकी पीढ़ियों को भी यह मिलना जारी रहे।
इनमें भी खूब सारे ऐसे हैं जिनकी अधिनायकवादी मानसिकता से उनकी संतति परेशान है और वह अपनी इच्छा से स्वतंत्रतापूर्वक जीना और आनन्द पाना चाहती है। लेकिन ये लोग अपनी ऐंठ और बड़े होने का दंभ पाले हुए हर पल यही चाहते हैं कि उनकी संतति उनके इशारों पर चलती रहे। उनका बेटा और बहू वही करें जो ये अभिभावक चाहते हैं। यहां तक कि उनका जंवाई और बेटी भी वही करे जो ये माँ-बाप और सास-ससुर चाहते हैं।
आजकल स्वतंत्रता और वैश्वीकरण का जमाना है, ऐसे में जो लोग अपनरी संतति पर इस प्रकार के अधिकार चाहते हैं, वे हमेशा कुढ़ते रहकर आत्मक्लेशी स्वभाव में डूब जाते हैं।
इनका हर दिन आशंकाओं, शंकाओं, दुराग्रहों, संत्रासों और अवज्ञा की पीड़ा से भरा रहता है। सब कुछ होते हुए भी दुःखों, अभावों, समस्याओं आदि का रोना रोते रहने वाले ये लोग जीते जी दुःखों में दिन काटते हैं और मरने के बाद भूत-प्रेत, पिशाच, चुड़ैल बनकर भटकते रहते हैं।
इनके द्वारा कमायी धन-सम्पत्ति और जमीन-जायदाद को उपयोग दूसरे ही लोग ही करते हैं, ये इनका भोग तक नहीं कर पाते। इनकी पूरी जिन्दगी जमा करने और दुःखी एवं आप्त होकर जीने में ही गुजर जाती है।
इन लोगों को दुर्लभ मानव देह प्राप्ति का कोई भान नहीं होता। जब मामूली इच्छाएं पूरी नहीं हो पाती, तब ये ही लोग तंत्र-मंत्र, टोनों-टोटकों और मैली विद्याओं का सहारा लेने के लिए ओझाओं, बाबाओं, पण्डितों, ज्योतिषियों, मौलवियों, मजारों, दरगाहों से लेकर लफंगें और लूटेरे तांत्रिकों, मांत्रिकों के यहां चक्कर काटते हुए मत्था टेकते रहते हैं और तरह-तरह के जतन करते हुए ताजिन्दगी लुटते रहते हैं। इन्हें लूटने वाले भी खूब आनन्द से लूटते हैं और ये प्रेम एवं श्रृद्धा के साथ लुटते रहते हैं।
जो लोग परिस्थितियों को अपने हिसाब से बदलने के लिए उद्यत रहते हैं वे सारे के सारे जिन्दगी भर भिखारियों की तरह असन्तुष्ट होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं और अंत तक कुछ हासिल नहीं हो पाता। न जीते जी खुश रह सकते हैं, न मरने के बाद भी।
अपनी अपार अवैध और अनधिकृत इच्छाओं की पूर्ति के लिए ये आत्मक्लेशी लोग भगवान को एक ऐसे नौकर के रूप में देखते हैं जो मामूली भक्ति भाव दिखा देने मात्र से उनका काम पूरा कर दे। इन लोगों को अपने प्रारब्ध कर्म और भाग्य पर कोई भरोसा नहीं रहता।
ये इसी जन्म को सर्वस्व मानते हैं और सांसारिक प्रपंचों और फैशनी परिवेश को देख-देख कर पूरी दुनिया का वैभव पाने को उत्सुक रहते हैं।
इनमें भी अधिकांश संख्या में वे लोग होते हैं जो तुच्छ कामों के पूर्ण न हो पाने के कारण भगवान को दोष देते हैं और आस्था तथा विश्वास त्यागकर नास्तिकता ओढ़ लेते हैं। यहीं से इनका निर्णायक पतन शुरू हो जाता है।
इन लोगों को समझाना किसी के बस में नहीं होता। केवल मृत्यु ही इनका एकमेव ईलाज है। इन लोगों के दुखड़े, पीड़ाओं और परेशानियों को सुन-सुनकर इनके आस-पास वाले भी हमेशा यमराज से इन्हें ले जाने के लिए मन ही मन प्रार्थना करते रहते हैं।
आशंकाओं का होना अपरोक्ष रूप से अपने आप यह सिद्ध करता है कि श्रृद्धा का अभाव ही मूल कारण है। श्रृद्धा का यह अभाव अपने आप के प्रति व ईश्वर के प्रति भी है। ईश्वरीय प्रवाह के प्रति जिनमें श्रृद्धा होती है, उनमें आंशका नहीं होती हैं। क्योंकि आंशका हीन जीवन ईश्वरीय हो जाता है जिसमें चिंता का कोई स्थान नहीं होता।
सच्चा श्रृद्धावान् भगवान की हर इच्छा को प्रसाद मानकर प्रत्येक क्षण आनन्द में रहता है। उसके लिए सुख भी भगवान की कृपा का प्रसाद है और दुःख भी। इसलिए हम यदि चिंताओं से मुक्ति पाना चाहे तो इसका एक मात्र सरल व सहज उपाय यह है कि ईश्वर के विधान के प्रति पूर्ण आस्था रखें तथा श्रृद्धा व विश्वास में कमी नहीं आने दें।
इससे श्रृद्धा बढ़ेगी और चिंताएं अपने आप खत्म हो जाएंगी तथा जीवन में आनन्द, सरलता एवं सहजता के भाव भरते चले जाएंगे। इससे इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाएंगे।