गोपेन्द्र नाथ भट्ट
भारतीय संस्कृति का सम्भवतः कोई भी अनुयायी श्रीमद्भगवद्गीता ग्रंथ से अपरिचित नहीं हैं।सभी ने इसका वाचन एवं श्रवण भी किया होगा लेकिन ‘राम गीता’ ग्रंथ के बारे में शायद ही किसी ने सुना होगा ।देश दुनिया में बहुत ही कम लोग राम गीता के बारे में जानते हैं।
राम गीता का दक्षिणी राजस्थान के ऐतिहासिक नगर डूंगरपुर से गहरा और अटूट सम्बन्ध है। वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप के वंश से ताल्लुक रखने वाले डूंगरपुर के तत्कालिक शासक महारावल विजय सिंह को एक शताब्दी पूर्व इस पवित्र ग्रंथ को प्रकाशित कराने का अनूठा श्रेय जाता है। विजय सिंह राजस्थान विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष महारावल लक्ष्मण सिंह और मध्य प्रदेश केडर के आईएएस रहें वीरभद्र सिंह एवं अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग के पूर्व अध्यक्ष डॉ नागेन्द्र सिंह,प्रद्युमन सिंह और रमा कुंवर के पिता और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष राज सिंह डूंगरपुर के दादा थे ।
पूर्व भाजपा सांसद और डूंगरपुर के वर्तमान महारावल हर्षवर्द्धन सिंह और उनके चाचा पूर्व आईएएस एवं वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में अग्रणी समर सिंह डूंगरपुर की भावना है कि वे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को अपने पितामह महारावल विजय सिंह द्वारा लिखी अनूठी राम गीता ग्रन्थ की प्रति भेंट करने के साथ ही इस ग्रन्थ का पुनः प्रकाशन करा इसकी प्रतियाँ धर्मावलंबियों के ज्ञानार्थ अयोद्धा के राममंदिर संग्रहालय में भी रखें,ताकि देश दुनिया के लोग राम-गीता के बारे में सही जानकारी प्राप्त कर सकें ।
आज जब अयोद्धा में निर्मित भव्य राम मन्दिर में भगवान राम लल्ला की नयनाभिराम प्रतिमा की स्थापना की पहली वर्षगांठ हैं और वहाँ हज़ारों श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ रहा हैं। प्रयागराज में 144 वर्षों बाद आयोजित हों रहें ऐतिहासिक महाकुम्भ में जाने वाले श्रद्धालु भी त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाने के बाद अयोद्धा को ओर जा रहें हैं ।ऐसे आध्यात्मिक अवसर पर राम गीता का उल्लेख करना न केवल प्रासंगिक हैं वरन् राम-गीता के बारे में जानकारी पाने की उत्सुकता और जानकारी पाने की इच्छा रखने वाले लोगों की जिज्ञासाओं को पूर्ण करने वाला भी है।
राम गीता और सुप्रसिद्ध श्रीमद् भगवद् गीता में आश्चर्यजनक समानताएं हैं। दोनों ग्रंथों में दार्शनिक सामग्री और संदेश मूलतः एक जैसे हैं।राम गीता में भी अठारह अध्याय हैं, लेकिन यह संस्कृत में कुल 1,001 श्लोकों के साथ बहुत लंबी है और इसका वर्णन हनुमान जी द्वारा श्री राम से ब्रह्मविद्या (आध्यात्मिक ज्ञान) के बारे में उन्हें बताने के लिए किए गए विनम्र अनुरोध से उत्पन्न हुआ है। राम गीता में विभिन्न प्रवचनों के अंत में, श्री राम उन्हें महाशास्त्र के रूप में वर्णित करते हैं।अर्थात, जिसमें सभी वेदों और उपनिषदों का सार है । हनुमान जी,श्री राम के उपदेशों को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हैं और कहते है कि उन्होंने जितनी भी गीताएँ सुनी थीं, उनमें राम गीता स्पष्ट रूप से सर्वोच्च और अमृत के समान थी।
द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने अपने सगे-सखा महान धनुर्धर अर्जुन के रथ का सारथी बन उनको कौरवों और पांडवों की सेनाओं के मध्य हुए महाभारत युद्ध के दौरान कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर गीता का ज्ञान दिया था और अपने ही कुल के भाइयों एवं सगे संबंधियों के साथ युद्ध से विमुख हुए धनुर्वीर अर्जुन पुनः रणक्षेत्र की और लौटे थे तथा महाभारत के युद्ध में पांडवों ने विजयश्री का वरण किया था । भगवान श्री कृष्ण, श्रीमद् भागवत गीता और अर्जुन को दिए गए गीता के उपदेशों के इन धार्मिक प्रसंगों से संभवत कोई भी अनभिज्ञ नहीं हैं,लेकिन त्रेता युग में अवतार लेने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम से सम्बद्ध राम गीता ग्रंथ के बारे में देश दुनिया में बहुत ही कम लोग जानते हैं।दरअसल राम गीता तत्व-सारायण नामक एक बड़े संस्कृत ग्रंथ का हिस्सा है, जिसका श्रेय महर्षि वशिष्ठ को दिया जाता है। डूंगरपुर महारावल विजय सिंह जोकि अक्सर वाराणसी जाते थे और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में भी अमूल्य सहयोगी रहें, को राम गीता इतनी पसंद आई कि उन्होंने इसके संस्कृत पाठ का हिंदी में अनुवाद करने और फिर एक भाष्य तैयार करने का काम शुरू कर दिया। श्रमसाध्य कार्य पूरा करने के बाद, उन्होंने तैयार ग्रन्थ की पाण्डुलिपि को भारत धर्म महामंडल के माध्यम से स्वामी ज्ञानंदजी को प्रकाशित करने के अनुरोध के साथ भिजवाई। अंततः 1921 में महारावल विजय सिंह के लेखन की स्वीकृति के साथ राम गीता प्रकाशित हुई। कालान्तर में इसके संस्करण भी निकले।
ऐसे दुर्लभ प्रकाशन के बारे में अब तक अज्ञात रहे तथ्यों का खुलासा करते हुए डूँगरपुर राजघराने से जुड़े सेवानिवृत्त आईएएस समर सिंह ने अपनी पुस्तक “डूंगरपुर: ए ग्लोरियस सेंचुरी” में कई दिलचस्प पहलुओं को विस्तार से बताया है।समर सिंह ने बताया कि उनके दादा महारावल विजय सिंह ने उस जमाने में फारसी और अरबी के प्रारंभिक ज्ञान के साथ हिंदी और अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने जाने-माने हिंदी कवियों की कविताओं का अध्ययन शुरू किया, जिसमें से एक हजार कविताओं का चयन किया गया और अंततः उन्हें विजय हजारा नामक खंड में प्रकाशित किया गया। उन्होंने अपने दादा के समय की एक और काव्य रचना उदय प्रकाश के प्रकाशन की व्यवस्था भी की। साथ ही हिंदी में 1,200 कहावतों का एक खंड भी प्रकाशित कराया।समर सिंह ने रोली बुक्स द्वारा प्रकाशित अपनी पुस्तक “डूंगरपुर-ए ग्लोरियस सेंचुरी” जो कि अमेज़न पर भी उपलब्ध है,में राम गीता का विस्तार से उल्लेख किया हैं ।145 पृष्ठों की यह पुस्तक भारतीय रियासतों पर अब तक की सभी पुस्तकों में से एक पूरी तरह से अलग प्रकार का संस्करण है।
इस पुस्तक में जैसा कि शीर्षक से पता चलता है, यह डूंगरपुर के तीन शासकों की एक शताब्दी लंबी गाथा है, जिसमें बताया गया है कि कैसे चित्तौड़गढ़ के बप्पा रावल के मेवाड़ राज वंश से निकल वागड़ अंचल की गौद में जा बसे प्राचीन डूंगरपुर रियासत के प्रत्येक शासक ने बिना रुके लगभग आठ शताब्दियों तक अनवरत तत्कालीन डूंगरपुर राज्य पर शासन किया। डूंगरपुर का यह गुहिलोत-अहाड़ा राजवंश मेवाड़ के सिसोदिया शासकों के प्रसिद्ध राजवंश की वरिष्ठ शाखा रहा है। यह राजवंश आठ शताब्दियों तक एक अखंड रक्तवंश रहा हैं , जोकि विभिन्न बाधाओं के बावजूद फला-फूला लोकप्रिय हुआ ।पुरातन इतिहास के संदर्भ में, स्वतंत्रता पूर्व के भारत या दुनिया में कहीं भी बहुत कम रियासतें इस अनूठे रिकॉर्ड की बराबरी कर सकी हैं। उस समय मध्य भारत के सबसे घने और बियाबान जंगलों से घिरे आदिवासी बाहुल्य वाले इस राज्य की कतिपय अनिश्चित परिस्थितियों पर विजय पाने के लिए तत्कालीन शासकों ने बहुत शिद्दत के साथ शासन किया था, जब परिवहन और संचार के संसाधन नहीं थे। साथ ही शिक्षा,स्वास्थ्य,पानी और अन्य आधारभूत सुविधाओं की चुनौतियाँ भी हमेशा मुँह बायें खड़ी रहती थी लेकिन कालान्तर में इस रियासत ने हर क्षेत्र में न केवल उत्कृष्टता हासिल की वरन देश दुनिया में नाम भी कमाया ।
पुस्तक “डूंगरपुर-ए ग्लोरियस सेंचुरी” के कवर पेज पर तत्कालीन डूंगरपुर राज्य के तीनों महारावलों उदय सिंह, विजय सिंह और लक्ष्मण सिंह के चित्रों को एक साथ प्रस्तुत किया गया है। इन तीनों शासकों का शासन एक रिकॉर्ड प्रदर्शन रहा है क्योंकि सिंहासन पर बैठने के समय ये तीनों नाबालिग थे।इसलिए इन तीनों शासकों ने अपने शासन के प्रारंभिक काल में उत्तराधिकार में शासन किया लेकिन बाद में प्रत्येक ने अपने विशेष तरीके से उत्कृष्टता हासिल कर अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया।
गुजरात और मेवाड़ की सीमाओं से सटे तत्कालीन डूंगरपुर राज्य की सौ साल लंबी और आकर्षक कहानी, जो अब तक अनकही रहीं है, इस पुस्तक में कैद की गई है।पुस्तक के लेखक समर सिंह ने यह पुस्तक डूंगरपुर राज्य के अन्तिम तीनों शासकों महारावल उदय सिंह, विजय सिंह और लक्ष्मण सिंह के साथ ही अपने पिता महाराज वीरभद्र सिंह के नाम समर्पित की है, जिन्होंने देश की आजादी के बाद मध्य प्रदेश में आईएएस बनने से पहले अपने बड़े भाई महारावल लक्ष्मण सिंह के शासन काल (1918 से 1948 तक) में राज्य के दीवान के रूप में कार्य किया था। महारावल लक्ष्मण सिंह 1947 में भारत की स्वतंत्रता से पूर्व डूंगरपुर के अन्तिम शासक थे।बहुमुखी प्रतिभा के धनी और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी लक्ष्मण सिंह स्वयं संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, मेवाड़ी और वागड़ी भाषा के निष्णात विद्वान थे ।उन्होंने अपने तीस वर्षों के शासन काल में एक कुशल प्रशासक, क्रिकेट के अद्वितीय खिलाड़ी और लोकप्रिय राजा के रूप में अपनी रियासत को शिक्षा, स्वास्थ्य,पेयजल, कृषि,वन और पर्यावरण, सिंचाई, बिजली, सड़क परिवहन सहित हर क्षेत्र में बुलंदियों पर पहुँचा कर डूंगरपुर को एक आदर्श राज्य बनाया और डूंगरपुर की शोहरत को सर्वत्र फैलाया। उनकी पुत्री सुशीला कुँवर के विवाह पर जब बीकानेर के महाराजा करणीसिंह की बारात डूंगरपुर आई तो यहाँ हवाई पट्टी भी निर्मित हुई और डूंगरपुर में बिजली घर भी बना।आजादी के बाद नरेश मंडल का प्रतिनिधित्व करते हुए महारावल लक्ष्मण सिंह का रियासतों के एकीकरण एवं राजस्थान के निर्माण में भी उल्लेखनीय योगदान रहा। उनके निजी सचिव रहें भट्ट कान्ति नाथ शर्मा महारावल से जुड़े अनेक संस्मरण सुनाते थे। महारावल लक्ष्मण सिंह अखिल भारतीय क्षत्रीय महासभा के अध्यक्ष रहने के साथ ही भारत के प्रथम गवर्नर जनरल चक्रवती सी. राजगोपालाचारी राजाजी द्वारा गठित स्वतन्त्र पार्टी की राजस्थान इकाई के अध्यक्ष, राजस्थान विधानसभा में वर्षों तक प्रतिपक्ष के नेता और विधानसाध्यक्ष भी रहें ।
महारावल लक्ष्मण सिंह, उनकी माता देवेन्द्र कुँवर और परिवार के अन्य सदस्यों ने राम गीता को हर आम खास तक पहुँचाने के अथक प्रयास किए ।समर सिंह के पुत्र शिवेन्द्र सिंह डूंगरपुर फिल्म हैरिटेज फाउंडेशन मुंबई के संस्थापक निदेशक है जिन्होंने कई भूली बिसरी फिल्मों का पुनरुद्धार कर उन्हें सुप्रसिद्ध कांस फिल्म फेस्टिवल तक पहुंचाने का प्रशंसनीय कार्य किया हैं ।