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बाल कहानियों में राष्ट्रप्रेम एक महती आवश्यकता........

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19 Jan 25
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बाल कहानियों में राष्ट्रप्रेम एक महती आवश्यकता........

" जिस प्रकार गीली मिट्टी में जैसे बीज डालते हैं वैसी ही पौध उगती है , वैसे ही बच्चे के कोमल मन में जैसे संस्कार डालेंगे वैसा ही उनके व्यक्तित्व निर्माण होता है। राष्ट्र प्रेम, राष्ट्रीय चेतना का भाव भी बाल्यकाल में ही रोपित किया जा सकता है। बच्चा स्वभाव से जिज्ञासु व कल्पनाशील तो होता है पर वह बल पूर्वक थोपी गई बातों को स्वीकार नहीं करता। ऐसे में बाल साहित्य और विशेष तौर से बाल कहानियाँ ऐसा सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा रोचक व मनोरंजक तरीके से बच्चों में राष्ट्र प्रेम, संस्कृति व परम्पराओं से लगाव का विकास किया जा सकता है।" बाल साहित्य में राष्ट्र प्रेम की आवश्यकता पर मैंने भीलवाड़ा की बाल लेखिका रेखा लोढ़ा 'स्मित' से जनवरी 25 के प्रथम सप्ताह में नाथद्वारा में साहित्य मंडल के समारोह के दौरान चर्चा की तो उन्होंने उक्त विचार व्यक्त किए।
 बच्चों में राष्ट्र प्रेम की आवश्यकता के प्रश्न पर उन्होंने कहा , " आज बहुतायत में सूचनापरक, जानकारी परक बाल कहानियाँ लिखी जा रही है। आज की गूगल पीढ़ी जो एक टच पर सूचनाओं का संसार रखती है। जहाँ दुनिया में सूचनाओं की एक बाढ़ सी आई हुई है। क्या हम ऐसी सूचनात्मक कहानियों से उनकी सूचनाओं कोई वृद्धि कर पाएंगे। शायद नहीं। यह ज्ञान बच्चों में  मानवीय संवेदना और राष्ट्र प्रेम नहीं जगा सकता, जिसकी आज महती आवश्यकता है। 
राष्ट्र प्रेम को आप किस प्रकार परिभाषित करती हैं के प्रश्न पर वे कहती हैं, " हम भारत की धरती पर खड़े होकर राष्ट्र शब्द उच्चारित करते हैं तो राष्ट्र को लेकर शेष विश्व से अलग अवधारणा हमें दृष्टिगोचर होती है। हमारे यहाँ राष्ट्र सीमाओं में बंधा कोई भूभाग मात्र नहीं होता। इसका एक व्यापक अर्थ है। जिसमें संस्कार, संस्कृति, परम्परा, जीवन मूल्य, नैतिक मूल्य चरित्र, चेतना और सामंजस्य जैसे कईं घटक सम्मिलित हैं। हम राष्ट्र को अपनी माँ मानते हैं। माँ से संतान का प्रेम कितना अगाध कितना प्रगाढ़ होता है इसे परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है। पर यह प्रेम यह भाव विकसित हो यह बालपन से ही बालकों के पोषण और उनके समाजीकरण पर निर्भर करता है। यदि व्यक्ति में राष्ट्र प्रेम का भाव दृढ़ता से समाहित हो तो इस एक भाव से ही उसमें अन्य चारित्रिक विशेषताएं उपस्थित हो जाएगी। जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्र से प्रेम होगा वह कभी भी ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता जिससे राष्ट्र की अस्मिता उसकी गरिमा पर कोई आँच आए।  वह एक अच्छे नागरिक की भाँति ही व्यवहार करेगा। ताकि राष्ट्र का गौरव सदैव बना रहे। इस भाव को रोपित करने के लिए। "
बच्चों को संस्कारित करने में बाल साहित्य के बारे में आप क्या सोचती हैं के उत्तर में उन्होंने बताया कि बच्चों को संस्कारित करने के लिए बाल साहित्य और उसमें भी बाल कहानी व कविता एक सशक्त माध्यम है जो बच्चों के मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ती है ।बालक अपने आसपास उपस्थित प्रत्येक वस्तु और घटना के विषय में जानने के लिए उत्सुक होते हैं। उनकी जिज्ञासा को तथा मानसिक शक्ति को सही दिशा देने के लिए भारतीय प्राचीन साहित्य में भी विधान था। पंचतंत्र हितोपदेश, कथा-सरित्सागर और सिंहासन बतीसी जैसी रचनाओं के लेखक के मन में निश्चित रूप से बालकों के व्यक्तित्व के विकास की रूपरेखा बनी होगी। प्रसिद्ध कवि तथा कथाकार गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर लिखते हैं - ठीक से देखने पर बच्चे जैसा पुराना और कुछ नहीं है। देश, काल, शिक्षा, प्रथा के अनुसार वयस्क मनुष्यों में कितने नए परिवर्तन हुए हैं, लेकिन बच्चा हजारों साल पहले जैसा था आज भी वैसा ही है। यही अपरिवर्तनीय, पुरातन, बारम्बार आदमी के घर में बच्चे का रूप धरकर जन्म लेता है, लेकिन वह सबसे पहले दिन जैसा नया था, सुकुमार, भोला, मीठा था, आज भी वैसा ही है। इसकी वजह है कि शिशु प्रकृति की सृष्टि है, जबकि वयस्क आदमी बहुत अंशों में आदमी के अपने हाथों की रचना होता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की मान्यता है कि बालकों के कोमल, निर्मल और साफ मस्तिष्क को वैसे ही सहज तथा स्वाभाविक बाल साहित्य की आवश्यकता होती है। 
क्या बच्चा आज नैतिक मूल्यों से दूर होता जा रहा है के प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा, " इन सब आवश्यक और अनावश्यक जानकारियों से और इनमें कोई फिल्टर नहीं होने से आज हमारी संस्कृति व परम्पराओं से दूर उनसे विलग एक नई संस्कृति का निर्माण हो रहा है। हमारे नैतिक मूल्यों व गौरवशाली अतीत से बालक दूर हो रहा है। आज का बालक राष्ट्र से अपने आप को उस तरह नहीं जोड़ पा रहा है जैसा हमारी भारतीय विचार धारा रही है। आज की कहानियों में इन्ही तत्वों की महती आवश्यकता है जो  बालकों को राष्ट्र से, जननी, जन्मभूमि वाले भाव के साथ जोड़ पाए। हमें बाल कहानी के माध्यम से बालकों को इन्ही घटकों से परिचित करवाने की आवश्यकता है।
      वाल्मीकि रामायण से उद्धत  प्रसिद्ध श्लोक की जानकारी देते हुए उन्होंने बताया  "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" अर्थात माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक महत्वपूर्ण है, इससे यह तो तय ही है कि हमारे जीवन में बाकी सभी दुनियावी वस्तुओं से माँ और मातृभूमि बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। जन्मभूमि यानि उस राष्ट्र की भूमि, जिस राष्ट्र में हमने जन्म लिया हम पले-बढ़े, पोषित हुए। उस भूमि से प्रेम करना, उसे सर्वोपरि रखना तभी सम्भव होगा जब हमारे संस्कार में राष्ट्र प्रेम का भाव होगा। हमारी धमनियों में रक्त के साथ राष्ट्र प्रेम भी प्रवाहित होगा। यह राष्ट्रप्रेम तभी हमारे अंदर विकसित हो सकता है जब हमें  शिशु काल से घुट्टी के साथ राष्ट्रप्रेम के भाव का पान कराया गया हो।
  बच्चों की बदलती मनोवृति के लिए वर्तमान में लिखा जा रहा बाल साहित्य कहां तक जिम्मेदार मानती हैं प्रश्न पर उन्होंने कहा कि
वर्तमान में युवा पीढ़ी जिस पाश्चात्य जीवन की अंधभक्त हो रही है उसे रोकने, उनको दिशा देने के लिए बाल कहानी ही वह सशक्त माध्यम है जो बालको को संस्कारित करने की क्षमता रखती है और संस्कारित राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत पीढ़ी का निर्माण कर सकती है।
वर्तमान बच्चों की बदलती सोच के लिए एक हद तक  वर्तमान में लिखा जा रहा साहित्य जिम्मेदार है। आज का अधिकांश  साहित्यकार मान, नाम और यश के लिए लेखन करता है। 
आज लिखी जा रही बाल कहानियों में पिष्टपेषण अधिक होता है। पटल पर एक रचना लिखी गई सब उसी भाव-भूमि पर दौड़ने लगते हैं। किसी विषय की कोई रचना सम्मानित हुई, पुरस्कृत हुई सभी उसी विषय के पीछे भाग पड़ते हैं। जबकि आज की पीढ़ी में धूमिल होते राष्ट्र प्रेम, राष्ट्रीय चेतना के अभाव और हमारी संस्कृति व परम्पराओं के क्षरण के इस काल में ऐसी कहानियों के लेखन की महती आवश्यकता है जो बच्चों के सुसंस्कारित कर उनमें राष्ट्रप्रेम की नींव मजबूत कर सके।
क्योंकि बच्चे राष्ट्र की आत्मा हैं। उन्हींमें भविष्य के अंकुरण की  संभावना है। उन्ही में वर्तमान खिलखिलाता है। और बालक ही संस्कृति के संवाहक एवं बीते हुए कल को सहेज कर रखने की महत्वपूर्ण कड़ी हैं।

 

 


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