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हमारे लोक नृत्यों को संरक्षित और प्रसारित करने में विश्वविद्यालयों  की भूमिका --प्रस्तुति –विलास जानवे 

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23 Oct 24
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हमारे लोक नृत्यों को संरक्षित और प्रसारित करने में विश्वविद्यालयों  की भूमिका --प्रस्तुति –विलास जानवे 

“अनेकता में एकता यह हिन्द की विशेषता” ,यह नारा भारत की संस्कृति का अभिन्न अंग भी है और दर्पण भी | संस्कृति में  लोक परम्पराओं,कलाओं, अनुष्ठानों,रहन सहन,खानपान ,लोक व्यवहार, रीति रिवाजों उत्सव – मेले, गीत , संगीत, नृत्य  और नाट्य का अनूठा संगम देखने को मिलता है  |
महात्मा गाँधी ने कहा था कि लोक गीतों में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियाँ गाती हैं | उत्सव, मेले और एवं अन्य अवसरों पर मधुर कंठों में लोक समूह लोकगीत गाते हैं | सामाजिकता को जिंदा रखने के लिए लोकगीतों और लोक संस्कृतियों को बचाए रखना ज़रूरी है |




हमारे सभी लोक गीत हमारे देहात से हैं और जीवन चक्र से जुड़े होते हैं, लोक गीत आजीविका के हर साधन (खेती, पशुपालन,दस्तकारी, खान कर्म ,वन्य उपज, नदी ,तालाब या समुद्र से उपज ) से जुड़े होते हैं | देहाती समुदाय बहुत मेहनती होता है और बड़े परिश्रमी के बाद दिनभर के काम की थकान को वो रात के समय गाकर और नाच कर मिटाता है | लोकगीतों और नृत्यों की  परंपरा बहुत पुरानी है | जब मनोरंजन के साधन नहीं थे  तब देहातों और भीतरी भागों में रहने वाले लोगों ने अपने मन को बहलाने के लिये हमारे जीवन चक्र  से जुड़े हर पक्ष के लिए गीत रचे | अच्छी फसल की प्रार्थना के लिए, प्राकृतिक प्रकोप से बचने के लिए, देवताओं को मनाने से लेकर   धन्यवाद देने के लिए लोकगीतों और नृत्यों की रचना हमारे देश के पूरे भूभाग में होती रही है | अनुष्ठानों, त्यौहार,उत्सव और आमोद प्रमोद के अलावा  साथ  हमारे देश में आस्था,भक्ति, सुख,दुःख,शिकायत ,प्रसंशा, पेक्षा,श्रम, शिक्षा, हर विषय से जुड़े  गीतों और नृत्यों का अकूत खज़ाना है | इन गीतों के भाव सभी रसों से अर्थात श्रृंगार,करुण,वीर,हास्य,अद्भुत,भयानक,रौद्र और बीभत्स रस से युक्त होते हैं |   



इनमें से अधिकाँश लोक गीतों और नृत्यों के  रचेयता कौन होते हैं, पता नहीं पड़ता, ये  विरासत  एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक वाचिक परम्परा के रूप में हस्तान्तरित होती  रहती  है | समय, काल और स्थिति के अनुसार इन गीतों और नृत्यों में भी नवाचार होते रहते हैं | सामुहिकता इन  लोक नृत्यों की विशेषता होती है | लोक और जनजातीय नृत्यों की परम्पराएं उस क्षेत्र विशेष  को एक अलग पहचान देती है और विलक्षण बनाती हैं | 
 कृषि कर्म से जुड़े परिश्रम की थकान को संगीत से विरल करना हो या फसल काटने के बाद उपजे उल्लास को नृत्य के माध्यम से अभिव्यक्त करना हो, धार्मिक अनुष्ठान में श्रद्धापूर्ण समपर्ण का भाव या पारिवारिक ,सामाजिक उत्सवों में समूह भाव से आनंद का संचार हो ,प्रसन्नता प्रकट करनी हो या किसी विषम परिस्थिति में किसी को संबल देना हो, लोक संगीत और नृत्य जीवन के हर पहलू का पारंपरिक समाधान है | इन सामूहिक लोक नृत्यों में समुदाय या गाँव  के लोग नाचते हैं इनमें व्यावसायिकता  के लिए कोई  स्थान नहीं होता  है ,हाँ केवल साजिंदे  या संगीतकार व्यावसायिक हो सकते  हैं |  धीरे धीरे ये लोक नृत्य गावों, खेत खलिहानों और चौपालों के अलावा  मेलों और उत्सवों का भाग बनने लगे हैं | कुछ नृत्यों ने शहरी आयोजनों और पर्यटन उत्सवों का आकर्षण बनना शुरू कर दिया है | सांस्कृतिक केन्द्रों और अकादमियों के प्रोत्साहन के कारण कई लोक और जनजातीय नृत्यों के व्यावसायिक  दल बन चुके हैं |      
आज के बदलते  परिवेश और बदलती आर्थिक स्तिथि के चलते  मनोरंजन के साधनों में भारी बदलाव आया है |  लोक परम्पराओं के प्रति समाज की उदासीनता  ने लोक और जनजातीय नृत्यों को भी प्रभावित किया है | परिणाम स्वरुप  लोक कलाकारों के लिए अस्तित्व और पहचान का संकट गहराने लगा है |  
    ऐसे संक्रामक दौर में  भी एक सकारात्मक सुखद ज्योति देखने को मिलती है और ये  है विश्वविद्यालयों के युवा उत्सवों में लोक नृत्य स्पर्धाओं का आयोजन |  यहाँ लोक सामूहिक नृत्यों की प्रतियोगिता होती है व्यावसायिक और मनोरंजन पक्ष को अछूता रखा जाता है | मैंने विगत कुछ वर्षों से मुम्बई विश्वविद्यालय के लोक नृत्यों के निर्णायक की भूमिका निभाते हुए बार बार इस विषय पर सोचा कि  हमारी संस्कृति को बचाने और प्रचारित करने में हमारे लोक नृत्यों भूमिका अहम होती है  | वैसे  भारत की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिए संस्कृति मंत्रालय के तहत कई संस्थान कार्यरत हैं | मुझे  स्वयं पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र,उदयपुर के 28 वर्ष के कार्यानुभव के अलावा देश की कई अकादमियों और संस्थानों के साथ ज़मीनी स्तर का काम करने का अवसर मिला | भारत के विभिन्न  राज्यों के लोक और जनजातीय नृत्यों के बारे में गहराई से जानने का अवसर मिला | विगत कुछ वर्षों से मैं मुम्बई विश्वविद्यालय के युवा महोत्सव में लोक नृत्यों की स्पर्धाओं के  निर्णायक के रूप में रह कर मैनें पाया कि मुम्बई विश्वविद्यालय के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्र के  354  कोलेजों के छात्र लोक नृत्यों की प्रतियोगिता में देश के विभिन्न राज्यों के लोक नृत्यों को पूरी तन्मयता से हूबेहू पेश करते हैं | कई बार तो उनकी प्रस्तुतियां मूल नृत्य से भी अधिक रोचक बन जाती  हैं | उनके साहस, ऊर्जा और लगन काबिले तारीफ़ है | यही कारण है कि मुम्बई विश्वविद्यालय विगत कई वर्षों से राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में शीर्ष स्थान प्राप्त करता है | 
मुंबई  विश्व विद्यालय के  युवा उत्सव के कर्मठ  समन्वयक  श्री नीलेश सावे ( जो कि स्वयं हरफनमौला कलाकार हैं ) ने बताया “युवा महोत्सव में लोक नृत्य प्रतियोगिता शुरू कर हमने नया इतिहास रच दिया |  हमने लोक नृत्यों  को कभी एक कार्यक्रम के रूप में नहीं देखा, बल्कि गौरवशाली भारतीय संस्कृति को  बचाने  और प्रदर्शित करने  का एक क्रांतिकारी कदम  माना है”| उन्होंने आगे बताया कि “लोग सोचते हैं कि हमारी  युवा पीढ़ी  पश्चिमी संस्कृति में डूबकर भारतीय संस्कृति को भूल गयी  है, लेकिन यहाँ के  विद्यार्थी इसका अपवाद हैं , इस युवा महोत्सव के संयोजक की भूमिका  निभाते हुए मुझे गर्व है|”  
महोत्सव में  लोक नृत्यों की मौलिकता,गाने और वाद्यों की लाइव संगत को बहुत पर जोर को महत्त्व दिया जाता है | आपसी स्पर्धा के कारण कोलेजों की  यह कोशिश रहती है कि वो ऐसे लोक या जनजातीय नृत्यों को ढूंढ कर पेश करें जो  पारम्परिक होते हुए भी लोगों के लिए नए हों,  चाहे उन अनभिज्ञ  नृत्यों को पेश करने में बहुत कठिनाई आ रही हो |  चुनौती स्वीकारना मुम्बई विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों की फितरत में है | वे  महाराष्ट्र ,गुजरात,कर्नाटक,गोवा  के नृत्य करने में पारंगत तो  हैं ही  इसके  अलावा पश्चिम बंगाल( धुनुची,संथाल ) , असम (बीहू,बोर्दाई चिखला ), नागालेंड( आओ), मणिपुर(लाईहरोवा ,जोगोई ), त्रिपुरा( होजगिरी ),सिक्किम (भूटिया,घांटू, लेपचा ) और केरल ( ओपन्ना),  जैसे नृत्यों को प्रस्तुत कर दर्शकों को कौतुहल में डाल देते हैं |  फाइनल राउंड पचास से अधिक नृत्यों में बिहू ,लाइहरोबा, होजागिरी, संथाली और दिवली नृत्यों  के तीन चार नृत्य दल तक भी  मौजूद रहे और निर्णायकों की मुश्किलें बढ़ाते रहे |  
सुदूर राज्यों के नृत्यों को सीखने  की प्रक्रिया में पहले वो उस  लोक नृत्य के गीत को सीखते हैं | गीत के बोल क्या हैं , उनका अर्थ क्या है ,  उसके गाने की शैली कैसी है , उनके पारम्परिक वाद्य कौन से हैं ,उस लोक नृत्य का  प्रसंग और महत्त्व क्या है , उस नृत्य की वेशभूषा कैसी है ,आभूषण कैसे हैं ,यहाँ तक कि नृत्य में उपयोगी सामग्री और मेक अप  का भी गहरा अध्ययन किया जाता है | नृत्य की संरचना की हूबहू नक़ल की जाती है |  इन युवाओं के हावभाव कई बार मूल नृत्य से भी आकर्षक हो जाते हैं | यदि मूल नृत्य में नर्तक स्वयं गाकर नाचते हों तो मुम्बई  यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी भी गाने को कंठस्थ कर सुर ताल में गाते हुए  नृत्य करते हैं | यदि मूल नृत्य में पारंपरिक वाद्य जैसे  ढोल, गुदुम बाजा, पम्बई, झांझ, पेंपा, ताशा वगैरह  वाद्य नर्तकों द्वारा बजाये जाते हो, तो यहाँ के नर्तक भी लोक वाद्यों पर हाथ जमा कर पूरे  अभ्यास  के साथ वैसा ही बजाते हैं जैसा कि उस राज्य के लोक या जनजातीय कलाकार बजाते हैं | मुम्बई विश्वविद्यालय के विभिन्न ज़ोन में आने वाले कालेजों की लोक नृत्य के साथ सभी प्रदर्शनकारी, चाक्षुष और साहित्य की गतिविधियों की स्पर्धा क्षेत्रीय स्तर पर होती हैं  जो कि सार्वजनिक श्री गणेशोत्सवों  से पहले हो जाती हैं | उत्सव के बाद विद्यार्थी जमकर मेहनत करते  हैं फाइनल स्पर्धाओं  की |  सभी  विद्यार्थी जी तोड़ मेहनत करते हैं  और अपनी प्रस्तुतियों को उत्कृष्टता प्रदान करते हैं |   
 लोक या जनजातीय नृत्य की प्रस्तुति में उनकी खोजी प्रवृति और संस्कृति प्रेम के दर्शन होते हैं जो भारत की अखंडता बनाये रखने में सहयोगी होता है |

 


लोक संस्कृति के महत्वपूर्ण पहलुओं को लेकर मेरी लोक कलाओं के  मर्मज्ञ ,वरिष्ठ और युवा कलाकारों ,सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थाओं से जुड़े संजीदा  अध्येताओं और अधिकारियों के साथ  अक्सर चर्चा होती रहती है  | सभी की मंशा रहती है कि हमें हमारी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने और प्रचारित करने के भरसक पर्यंत करने चाहियें | 
 मेरे साथ निर्णायक की भूमिका में रहे दक्षिण क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के परामर्श दाता, श्री एस. राजगोपालन  ने कहा  “मुझे अपने आप में यकीन करना मुश्किल था कि मंच पर नाच रहे युवक युवतियां मुम्बई के विद्यार्थी  थे | क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्रों में हमनें  विभिन्न उत्सवों में लोक और जनजातीय नृत्य देखे हैं लेकिन यहाँ के शौकिया कलाकारों ने व्यावसायिक कलाकारों को भी जबरदस्त टक्कर दी है”|
  पूर्वी  क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, कोलकाता से आये  सहायक निदेशक डाक्टर तापस  समंतराय भी मुम्बई के युवा कलाकारों की प्रस्तुतियां देख कर बहुत खुश हुए |  इस बात पर वज़न दिया कि विभिन्न युवा उत्सवों के आयोजन की पीछे भारत सरकार की यह स्पष्ट विचारधारा है कि  विश्वविद्यालयों  से जुड़ी  युवापीढ़ी भारत की  वैविध्यपूर्ण संस्कृति को अच्छी तरह समझे और यह जाने कि हर राज्य ,हर समुदाय ,देश की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग है | 

युवा महोत्सव  के निर्णायक के रूप में जुड़े  पुणे  के श्री कृष्णा काटे ने बताया “कौतुहल की बात ये है कि लड़कों से ज़्यादा संख्या लड़कियों की होती है |  काटे जी बताते हैं कि “ मैं विगत तीन बार (2018,2023  और 2024 ) निर्णायक के रूप में इन  स्पर्धाओं में जा रहा हूँ |  मुंबई विद्यापीठ के मराठी  विद्यार्थी   नोर्थ ईस्ट से लेकर केरल तक के राज्यों के नृत्य ,भाषा ,शैली ,अलंकार ,पेहराव ,तीज त्यौहार ,परम्परा ,संगीत,व्यवहार का अध्ययन ,विचार मंथन करके जानकारों  के मार्ग दर्शन में डेड दो महीने के परिश्रम से नृत्य सीखते हैं और प्रस्तुति देते हैं | मन बहुत गद गद होता है | विद्यापीठ की  इन स्पर्धाओं  से देश को कई कलाकार मिले  हैं | कई विद्यार्थी तो दाम कमा रहे हैं ,कई नाम  कमा रहे हैं तो कई आनंद लूट रहे हैं | कला से कलाकार बनता है , कलाकार से जनमन खिलता है, मनोमिलन होता है और आनंद का आदान प्रदान होता है” |   
उत्सव के दौरान उदघोषक द्वारा अलग अलग राज्यों के नृत्य की प्रासंगिकता और अवधारणा पर प्रकाश डाला और संक्षिप्त में नृत्य के महत्त्व, गीत ,वाद्य ,पोशाक, अलंकार  की संक्षिप्त  जानकारी  देकर दर्शकों की  रुचि को बढ़ाया और कलाकारों की प्रस्तुतियों से मधुर रिश्ता बनाया | 
यह अनुभव हुआ कि पारंपरिक मौलिक लोक नृत्यों के ज़रिये उस राज्य के प्रति हमारी अभिरूचि बढ़ती है | उस राज्य की यात्रा, चाहे पर्यटन के लिए ही क्यों न हो, का मन करता है और अपनापन बढ़ता है | 
निर्णायकों का सम्मान करते हुए मुम्बई विश्वविद्यालय के कुलगुरु डाक्टर रवीन्द्र कुलकर्णी ने जहां एक ओर युवाओं की प्रसंशा की वहीं यहाँ के युवा महोत्सव से जुड़ी गतिविधियों के स्तर को भी सराहा | उन्होंने  इन लोक नृत्यों के प्रलेखन पर भी जोर दिया ताकि आगे आने वाले विद्यार्थी लाभान्वित हो सकें |   
मुम्बई विश्वविद्यालय के विद्यार्थी विकास विभाग के निदेशक, डाक्टर सुनील पाटील अपनी संतुष्टि के साथ बोलते हैं “पिछले 25 वर्षों से युवा महोत्सव से जुड़ने वाले हजारों विद्यार्थियों ने युवा महोत्सव में जो  देशी रंग भरे और बुलंदियां हासिल कीं, वह हृदयस्पर्शी और आनन्ददायक है” |
उनके इस  संतोष के पीछे मुम्बई विद्यापीठ के विभिन्न कोलेजों के सांस्कृतिक प्रतिनिधियों की मेहनत परिलक्षित होती है | डिजिटल युग में विजेताओं को फोटो सहित प्रमाणपत्र, वो भी स्पर्धा समाप्ति के एक घंटे बाद मिलना कौतुकास्पद है |    
उत्सव का एक खूबसूरत पहलू ये भी रहा कि भारतीय संगीत और संस्कृति के  संरक्षण,उत्थान और प्रचार को समर्पित मुम्बई की पुरानी संस्था, बेनियन ट्री ने लोक संस्कृति में शोध कार्य के लिए युवा प्रतिभाओं  (इंटर्न्स ) को छात्रवृति देने की घोषणा की |  युवा शोधकर्ता बेनियन ट्री के “ मेरी कला मेरी पहचान”   योजना और फोक आर्टिस्ट्स कम्युनिटी सेंटर, जाम्बुल्पाडा, महाराष्ट्र के साथ काम करेंगे | जहां एक ओर उन्हें  कला और संस्कृति  मर्मज्ञों और वयोवृद्ध कलाकारों के  अनुभवों का लाभ मिलेगा वहीं लोक कलाओं से जुड़े ग्रामीण कलाकारों को मदद करने का अवसर मिलेगा | 
लोक संस्कृति सहभागिता और सहकारिता की संस्कृति है जो हमें संस्कारवान और समाज को खुशहाल बनाने में मदद करती है | मोबाइल युग  की गिरफ्त में आये युवा और बाल साथियों को संवेदनशील और संस्कारित करने में लोक नृत्यों की महत्वपूर्ण भूमिका है |
युवा महोत्सव, युवाओं को दूसरे राज्यों की विरासत और व्यवहार को समझने का  स्वर्णिम अवसर प्रदान करते हैं और अन्य राज्यों के प्रति दर्शकों की अभिरुचि भी बढ़ाते हैं | दर्शक दीर्घा के लोग उन लोक नृत्यों की तुलना अपने राज्य से करते हैं और विविधता और समानता का आनंद लूटते है |

ऐसे उत्सवों द्वारा ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की संकल्पना साकार होती है | हमारी युवा और आने वाली पीढ़ियों में देश की अमूल्य  सांस्कृतिक विरासत और कलाओं के प्रति प्रेम और गर्व अनुभव होता  है जो अखंड भारत के सपने को पूरा करता  है |   
---विलास जानवे – उदयपुर


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