प्रस्तुति : काली दास पाण्डेय
गोरेगाँव (मुम्बई) स्थित दादा साहेब फाल्के चित्रनगरी, फिल्म सिटी स्टूडियो में भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहेब फाल्के की 81वीं पुण्यतिथि पर एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया। इस अवसर पर उनके ग्रैंडसन चंद्रशेखर पुसलकर अपनी पत्नी मृदुला पुसलकर व दत्तक पुत्री नेहा बंदोपाध्याय के साथ उपस्थित रहे। इस श्रद्धांजलि समारोह में बॉलीवुड हस्तियों, फिल्म संस्थानों के प्रतिनिधियों, महाराष्ट्र सरकार के पदाधिकारियों और देश के विभिन्न राज्यों से आए सिनेमा प्रेमियों ने उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर श्रद्धांजलि अर्पित की।
दादा साहेब फाल्के ने अपने 19 वर्षों के फिल्मी करियर में 121 फिल्में बनाई, जिनमें 26 शॉर्ट फिल्में शामिल हैं। वह सिर्फ एक निर्देशक ही नहीं बल्कि निर्माता और स्क्रीनराइटर भी थे। उनकी आखिरी मूक फिल्म 'सेतुबंधन' और अंतिम फीचर फिल्म 'गंगावतरण' थी। भारत सरकार ने 1969 में उनके सम्मान में 'दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड' की स्थापना की, जिसे भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च पुरस्कार माना जाता है।
दादा साहेब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को बंबई प्रेसीडेंसी के त्र्यंबक में हुआ था। उनका असली नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था। उनके पिता संस्कृत विद्वान थे। उन्होंने सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स, बॉम्बे से ड्राइंग का कोर्स किया और बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय में कला भवन से चित्रकला की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद उन्होंने फोटोग्राफी और फिल्म निर्माण में रुचि ली।
फाल्के ने 'श्री फाल्के एनग्रेविंग एंड फोटो प्रिंटिंग' नाम से अपना स्टूडियो खोला, लेकिन प्रारंभिक असफलताओं के बाद उन्होंने नाटकों में रुचि ली और कुछ समय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में फोटोग्राफर के रूप में भी कार्य किया। 1912 में उन्होंने पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाई, जो भारत की पहली पूर्ण लंबाई की फीचर फिल्म थी।
फाल्के ने भारतीय पौराणिक कथाओं को फिल्मों का आधार बनाया। उस समय महिलाओं का फिल्मों में अभिनय करना सामाजिक रूप से वर्जित था, इसलिए उन्होंने 'राजा हरिश्चंद्र' में रानी तारामती की भूमिका के लिए एक पुरुष अभिनेता (अन्ना सालुंके) को चुना। हालांकि, बाद में उन्होंने 'मोहिनी भस्मासुर' (1913) में दुर्गाबाई कामत और उनकी बेटी कमलाबाई गोखले को भूमिकाएं दीं, जिससे महिलाओं के लिए फिल्मों में अभिनय का मार्ग प्रशस्त हुआ।
आज भारतीय सिनेमा एक विशाल उद्योग बन चुका है, लेकिन इसकी नींव दादा साहेब फाल्के ने अपने सीमित संसाधनों और अपार जुनून से रखी थी। उनकी प्रेरणादायक यात्रा फिल्म निर्माताओं को सदैव धैर्य और समर्पण के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती रहेगी।