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“आत्मा के जन्म-मरण व जीवन का न आरम्भ है और न अन्त है”

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06 Mar 25
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“आत्मा के जन्म-मरण व जीवन का न आरम्भ है और न अन्त है”

     मनुष्य संसार में जन्म लेता है, कर्म करता है, शैशव, बाल, किशोर, युवा, प्रौढ़ तथा वृद्धावस्थाओं को प्राप्त होता है और इसके बाद किसी रोग व अन्य किसी कारण से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। हमारी स्मरण शक्ति हमारे इसी जन्म की कुछ प्रमुख घटनाओं को स्मरण करने में समर्थ होती है। मनुष्य में भूलने की प्रवृत्ति होती है। मनुष्य को एक दिन पहिले की ही बहुत सी बातों की स्मृति नहीं रहती। हम जो बोलते हैं वह कुछ देर बाद उसी क्रम से शब्दशः दोहरा नहीं सकते। कल प्रातः दिन में तथा रात्रि को हमने आहार में क्या क्या पदार्थ कितने बजे लिये थे तथा हमने कल व इससे पूर्व के दिन कौन कौन से रंग के वस्त्र पहिने थे व किन किन लोगों से मिले थे, इसकी भी हमें साथ साथ व कुछ काल बाद ही विस्मृति होती जाती है। अतः मनुष्य को अपने इसी जीवन की सभी बातें स्मरण नहीं रहती। मनुष्य यदि अपने जन्म से पूर्व की स्थिति के विषय में विचार करे तो उसे उसका स्मरण व ज्ञान नहीं होता। विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि हमारी सत्ता है। हम इस संसार में अपनी इच्छा से उत्पन्न नहीं हुए। हमारे अतिरिक्त भी संसार में एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक चेतन व आनन्दयुक्त सत्ता है जो हम जैसे जीवों के बारे में सोचती है और उन्हें एक व्यवस्था के अनुसार जन्म देती व पालन करती है। संसार को देखकर इस व्यवस्था का बोध होता है। वह सत्ता ईश्वर कहलाती है। वेदों में ईश्वर का विस्तार से वर्णन है जो तर्क एवं युक्ति संगत है। बुद्धि व ज्ञान की कसोटी पर खरा है तथा जो आत्मा को अपनी सत्यता की स्वयं ही पुष्टि करता व विश्वास दिलाता है। 

    ईश्वर यद्यपि दिखाई नहीं देता परन्तु वह अपने कार्य व क्रियाओं से प्रत्यक्ष अनुभव होता है। संसार की उत्पत्ति, स्थिति व पालन तथा इसकी प्रलय का अनुमान कर इन कार्यों को करने वाली सत्ता ईश्वर का ज्ञान होता है। यदि ईश्वर न होता तो सृष्टि की उत्पत्ति कौन करता? इससे सिद्ध होता है कि ईश्वर नाम की एक सत्ता है जिसने इस संसार को बनाया है और वही इसे चला भी रही है। ईश्वर का सत्यस्वरूप भी वेद एवं वेद के अनुगामी ऋषियों के ग्रन्थों से प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द भी ईश्वर को प्राप्त तथा उसके साक्षात्कर्ता ऋषि हुए हैं। उन्होंने वेदों का अध्ययन तथा उसकी मान्यताओं की सत्यासत्य की परीक्षा की थी। वेदों से उपलब्ध तथा तर्क एवं युक्ति से सिद्ध ईश्वर की चर्चा उन्होंने अपने ग्रन्थों वा साहित्य में अनेक स्थानों पर की है। वह बताते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही ईश्वर सभी मनुष्यों द्वारा उपासनीय है। ईश्वर की सत्ता व उसके यह सभी विशेषण संसार में घट रहे हैं जिनका बुद्धिमान मनुष्य प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। इससे ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है। 

    मनुष्य व अन्य प्राणियों के शरीरों में होने वाली नाना प्रकार की क्रियायें से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। आत्मा जब तक शरीरों में होती है तभी तक शरीर क्रियाशील व गतिशील रहते हैं। आत्मा शरीर का त्याग कर देती है तो शरीर निष्क्रिय व मृतक हो जाता है। इससे शरीर में आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। शास्त्रकारों में इस विषय की चर्चा कर पाया है कि आत्मा एक सत्य, चेतन, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अजर, अमर, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा, कर्मों का भोक्ता, ज्ञान प्राप्ति व सद्कर्मों से मुक्ति को प्राप्त होने वाली सत्ता है। जीवात्मा के इन गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर यह विदित होता है कि आत्मा का उसके पूर्वजन्मों में किये कर्मों के अनुसार जन्म होता है, वह अपने किये कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोगता है, मनुष्य योनि में नये नये कर्मों को करता है और शरीर की वृद्धावस्था में रोग आदि के कारण शरीर का त्याग कर देता है। मृत्यु होने पर आत्मा के जितने व जैसे पाप-पुण्य कर्म होते हैं उसके अनुसार परमात्मा उसको नया जन्म प्रदान करते हैं। आत्मा के जन्म व मरण का क्रम अनादि काल से, जब से कि ईश्वर, आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व है, निरन्तर चला आ रहा है। यह क्रम सदैव चलता रहेगा। इसमें कभी अवरोध व रुकावट नहीं आयेगी। जिस प्रकार काल चक्र कभी रुकता नहीं और न ही आगे रूकने वाला है, उसी प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय तथा जीवात्मा के जन्म व मरण तथा मुक्ति आदि का क्रम भी कभी रुकने वाला नहीं है। हमारा अस्तित्व व सत्ता अनादि काल से है। इसका कभी नाश वा अभाव नहीं हो सकता। प्रसिद्ध ग्रन्थ गीता में भी कहा गया है कि आत्मा अजर व अमर है। यह शस्त्रों से काटी नहीं जा सकती। अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता तथा वायु इसे सुखा नहीं सकती। आत्मा की सत्ता वा अस्तित्व अनादि काल से है और सदा बना रहेगा और ईश्वर इसे प्रत्येक सृष्टिकाल में इस ब्रह्माण्ड में पृथिवी सदृश किसी ग्रह में जन्म देकर इसके कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देते रहेंगे। 

    गीता में एक अन्य वैदिक सिद्धान्त का भी प्रभावपूर्ण शब्दों में वर्णन हुआ है। यह सिद्धान्त वैज्ञानिक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार अभाव से भाव (पदार्थ) अस्तित्व में नहीं आ सकते हैं। इसी प्रकार से भाव पदार्थों का भी कभी अभाव व नाश नहीं होता। भाव पदार्थ का अस्तित्व सदा बना रहता है। इस सिद्धान्त के अनुसार संसार में अस्तित्ववान ईश्वर, जीव व प्रकृति का अस्तित्व सदा से है और सदा रहेगा। यह तीनों भाव पदार्थ हैं। इनका नाश व अभाव कभी किसी भी अवस्था में नहीं होगा। इसी सिद्धान्त के आधार पर हमारी सृष्टि प्रवाह से अनादि व सदा रहने वाली सिद्ध होती है। इसी सिद्धान्त के आधार पर जीव को अजर व अमर तथा अवनिाशी माना व सिद्ध किया जाता है। अतः ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति इन तीन मौलिक पदार्थों का अस्तित्व सदा रहने वाला है। इसी कारण से जीव सदा अस्तित्व में रहेगा तो इसके जन्म-मरण व मुक्ति आदि का क्रम भी निरन्तर चलता ही रहेगा। इस यथार्थ को जानकर ही हमारे ऋषियों ने ईश्वर व जीव के प्रायः सभी गुण, कर्म व स्वभाव तथा पक्षों पर विचार किया और अपने ग्रन्थों में इनसे सम्बन्धित प्रभूत ज्ञान सामग्री प्रस्तुत की है। हमारा कर्तव्य है कि जब हमें सदा इस संसार में रहना ही है, जन्म के बाद मृत्यु व मृत्यु के बाद जन्म व मुक्ति को प्राप्त होना ही है, तो हम ईश्वर व आत्मा आदि से जुड़े सभी प्रश्नों पर विचार करें व अन्य विद्वानों व शास्त्रों की सहायता से इनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करें। इस कार्य में वेद, उपनिषद, दर्शन, तथा विशुद्ध मनुस्मृति आदि ग्रन्थ हमारी सहायता करते हैं। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर मनुष्य की सभी शंकाओं का समाधान करने के लिये सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से मनुष्य की सभी जिज्ञासाओं का समाधान हो जाता है और उसके सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। अतः मनुष्य जीवन को सार्थक व सफल करने तथा सन्मार्ग की प्रेरणा प्राप्त करने के लिये प्रत्येक मनुष्य को वेद व वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश तथा ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों का अध्ययन  करना चाहिये। इससे आत्मा भटकेगी नहीं अपितु ईश्वर को प्राप्त होकर मुक्ति का सुख व आनन्द भोगेगी। आत्मा को सन्मार्ग व सत्पथ प्राप्त होगा जिसका अनुगमन कर वह अपने जन्म जन्मान्तरों के दुःखों को नियंत्रित कर सकती है व प्रयत्न व पुरुषार्थ कर मुक्ति को भी प्राप्त हो सकती है। ऐसा करने से ही हमारा मनुष्य जीवन भी सार्थक व सफल होगा। 

    लेख का और विस्तार न कर हमें यह बताना है कि मनुष्य जीवन न तो प्रथम है और न ही अन्तिम है। इस जीवन से पूर्व भी हमारे अनन्त बार जन्म व मृत्यु हो चुकी हैं। भविष्य में अनन्तकाल तक हम जन्म व मरण के चक्र में आबद्ध रहेंगे। जन्म व मरण होने पर ही हमें दुःख व सुख प्राप्त होते हैं। इस सृष्टि में अब तक हम प्रायः सभी प्राणी-योनियों में जन्म ले चुके हैं, मर चुके हैं तथा अनेक बार मोक्ष में भी जा चुके हैं। सम्पूर्ण दुःखों की मुक्ति केवल जीवात्मा को मोक्ष की अवस्था प्राप्त होने पर ही होती है। इसके लिये हमें ईश्वर का सत्यस्वरूप जानकर उसकी उपासना करते हुए सद्कर्म एवं परोपकार के कार्य करने होते हैं। हमें अपने आचार व विचारों को सर्वथा शुद्ध करना होता है। ईश्वर के साक्षात्कार की साधना करनी होती है जिसके सिद्ध होने पर ईश्वर का प्रत्यक्ष व मोक्ष प्राप्त होता है। इससे आत्मा को होने वाले सभी दुःख दूर हो जाते हैं। मोक्ष के स्वरूप व इसकी प्राप्ति के साधनों पर सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम समुल्लास में प्रकाश डाला गया है। सभी मनुष्यों को इस ग्रन्थ को पढ़कर लाभ उठाना चाहिये। इसे पढ़कर व इसमें बताये साधनों को अपनाकर ही हमारा जन्म सफल होगा। इति ओ३म् शम्। 
-मनमोहन कुमार आर्य
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देहरादून-248001
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