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स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा सन् 1891 के हरिद्वार कुम्भ मेले में प्रथमवार वैदिक धर्म का प्रचार

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05 Feb 25
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स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा सन् 1891 के हरिद्वार कुम्भ मेले में प्रथमवार वैदिक धर्म का प्रचार

प्रस्तुतकर्ता-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने अपने जीवन काल में सन् 1867 और 1879 के हरिद्वार के कुम्भ मेलों में घर्म-प्रचार किया था। सन् 1883 में उनका देहावसान हुआ। देहावसान के 8 वर्ष बाद सन् 1891 में हरिद्वार में कुम्भ का मेला पुनः आया। तब तक आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के अतिरिक्त किसी अन्य प्रादेशिक सभा का गठन नहीं हुआ था। महात्मा मुंशीराम जी उन दिनों पंजाब में जालन्धर आर्यसमाज के प्रधान थे। प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा के प्रधान भी शायद आप ही थे। आपने अपने विद्यार्थी जीवन में लाहौर एवं जालन्धर में प्रभातफेरी द्वारा तथा नगर के चैक आदि स्थानों में अपने मित्रों के सहयोग से सभायें करके प्रभावशाली प्रचार किया था। प्रचार में आपकी गहरी लगन थी। इसके लिये आपने अपने वकालत के व्यवसाय की भी उपेक्षा की। प्रचार का निश्चय करके आपने हरिद्वार के कुम्भ मेले में धर्म प्रचार करने के लिये वहां जाकर व्यवस्था की। उनकी योजना सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई। इस आयोजन में पं. लेखराम सहित आर्यसमाज के अनेक प्रसिद्ध सन्यासी एवं विद्वान भी प्रचारार्थ आये थे जिनमें पं. आर्यमुनि जी, स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी तथा स्वामी नित्यानन्द जी आदि सम्मिलित हैं। पं. सत्यदेव विद्यालंकार लिखित स्वामी श्रद्धानन्द जी की जीवनी में कुम्भ मेले में स्वामी श्रद्धानन्द जी की प्रेरणा से जो प्रचार हुआ उसका वर्णन उपलब्ध होता है। पाठकों के ज्ञानवर्धन हेतु हम उसे प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

पं. सत्यदेव विद्यालंकार जी लिखते हैं कि पश्चिमोत्तरीय भारत में हरिद्वार बहुत बड़ा तीर्थ है और भारत के पहिली श्रेणी के तीर्थों में उसकी गणना है। इसलिए वहां छोटे मोटे मेले तो वर्ष में तीन सौ साठ दिन ही होते रहते हैं। पर बारह वर्ष बाद आने वाला कुम्भ का महामेला अद्वितीय होता है। उससे उतर कर उसके छः वर्ष बाद होने वाला अर्धकुम्भी का मेला होता है। ऋषि दयानन्द ने सम्वत् 1936 में ऐसे अवसर पर ही हरिद्वार में पाखण्ड-खण्डिनी पताका गाड़ कर अपने महान् और विशाल मिशन की विजय-दुंदुभि बजाई थी। ऋषि के अनुव्रती इस गौरवपूर्ण घटना को भला कब भूल सकते थे? ऋषि दयानन्द के देहावसान के बाद सम्वत् 1948 (सन् 1891) में पहले पहल हरिद्वार के कुम्भ का यह महामेला आया। आर्यसमाजों को सुस्त देख कर मुंशीराम जी ने इस अवसर पर प्रचार करने के लिये (अपने प्रसिद्ध पत्र सद्धर्म) प्रचारक द्व़ारा आर्य जनता से अपील की। अमर शहीद पंडित लेखराम जी आर्यमुसाफिर उन दिनों कलकत्ता में थे। आपने वहीं से आप की अपील का समर्थन किया। (सद्धर्म) प्रचारक द्वारा आन्दोलन होने पर प्रतिनिधि सभाओं ने भी होश संभाला। आर्य जनता प्रचार का सब भार उठाने के लिए तय्यार हो गई। इस प्रचार में धन की कमी की कोई शिकायत नहीं रही। पर, हरिद्वार पहुंच कर प्रबन्ध की सब जिम्मेवारी उठाने के लिए कोई तय्यार हुआ। मुंशीराम जी को ही एक मास पहिले वहां जाकर डेरा जमाना पड़ा। तीन दिन बाद कलकत्ता से लेखराम जी भी पहुंच गये।

 

ऐसे प्रचार का संभवतः वह पहिला ही अवसर था। इसलिए उपदेशकों, स्वामियों और अन्य सब साधनों की कमी होने पर भी निराशा का कुछ कम सामना नहीं करना पड़ा। पौराणिकता के गढ़ में वैदिक धर्म का सन्देश सुनाना कोई साधारण काम नहीं था। इसीलिए जालन्धर से चलने के बाद मुंशीराम जी को सहारनपुर और रुड़की में निराशा की बातें सुनने को मिली। पर मुंशीराम जी सहज में निराश होने वाले नहीं थे। हरिद्वार पहुंच कर दो-तीन दिन में ही उन्होंने सब व्यवस्था ठीक कर दी। पर घर से पुत्र की बीमारी का तार आने से उनको शीघ्र ही लौटना पड़ा। लौटने से पहले उन्होंने पंडित लेखराम जी, सुकेत के राजकुमार जनमेजय और काशीराम जी आदि को सब व्यवस्था अच्छी तरह समझा-बुझा दी। पंडित लेखराम जी के अलावा स्वामी आत्मानन्द जी, स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी, स्वामी पूर्णानन्द जी, ब्रह्मचारी नित्यानन्द जी, ब्रह्मचारी ब्रह्मानन्द जी और पंडित आर्यमुनि जी आदि भी हरिद्वार पहुंच गये थे। भजनों और व्याख्यानों के साथ-साथ शंका-समाधान भी खूब होता था। कोई मार्के का शास्त्रार्थ तो नहीं हुआ, किन्तु प्रचार की खूब धूम रही। वैदिक-धर्म का सन्देश हजारों नर-नारियों तक पहुंच गया। आर्यसमाज का परिचय भी लोगों से अच्छा हो गया। पंडित लेखराम जी ने इस प्रचार की रिपोर्ट को स्वयं लिखकर ट्रैक्ट के रूप में छपवा कर प्रकाशित किया।

 

मुंशीराम जी को इस प्रचार से सबसे अधिक लाभ यह हुआ कि पंडित लेखराम जी का उनसे बहुत घनिष्ठ प्रेम हो गया। दोनों आपस में एक दूसरे के बहुत समीप हो गये। आर्यसमाज को भी इस घनिष्ठता से बहुत बड़ा लाभ हुआ। दोनों की घनिष्ठता से आर्यसमाज में एक शक्ति पैदा हो गई, जिसने गृह-कलह के संकट काल में आर्यसमाज को विचलित होने से बचाने में जादू का काम किया। इसके अलावा आर्यसमाज को प्रत्यक्ष लाभ यह मिला कि कुम्भ पर आर्यसमाज के प्रचार-कार्य का वह सिलसिला शुरू हो गया, जो अब तक भी जारी है। सम्वत् 1960 (सन् 1903) में इसी भूमि के पास फिर प्रचार हुआ और सम्वत् 1962 में वह सारी भूमि पंजाब-प्रतिनिधि सभा के नाम से खरीद ली गई। उसके बाद सम्वत् 1972 (सन् 1915) में वहां सार्वदेशिक सभा की ओर से प्रचार हुआ और सम्वत् 1984 (सन् 1927) में भी प्रचार की धूम रही। अर्धकुम्भी पर भी इसी प्रकार सदा प्रचार होता रहा। कुम्भ और अर्धकुम्भी पर होने वाले इस सब प्रचार का सारा श्रेय मुंशीराम जी को ही है, जो (सद्धर्म) प्रचारक द्वारा सदा इस अवसर पर आर्यसमाज को कर्तव्य-पालन के लिए जगाते रहते थे। इस समय यह भूमि मायापुर की वाटिका के नाम से प्रसिद्ध है। गुरुकुल के गंगा के इस पार होने पर यह भूमि गुरुकुल के यात्रियों के बहुत काम आती थी और गुरुकुल की यहां एक छावनी-सी पड़ी रहती थी। यहां पं. सत्यदेव विद्यालंकार जी द्वारा लिखित विवरण समाप्त होता है।

 

पं. सत्यदेव विद्यालंकार जी ने जो जानकारी दी है वह ऐतिहासिक महत्व की है। इस महत्व को दृष्टिगोचर कर ही हमने इसे प्रस्तुत किया है। हम आशा करते हैं पाठक इस जानकारी से लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।


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