GMCH STORIES

“मनुष्य को प्रतिदिन ईश्वर के उपकारों का स्मरण करना चाहिये”

( Read 1814 Times)

06 Dec 24
Share |
Print This Page

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“मनुष्य को प्रतिदिन ईश्वर के उपकारों का स्मरण करना चाहिये”

     हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि ईश्वर क्या व कैसा है? उसके गुण, कर्म व स्वभाव क्या व कैसे हैं? इसका ज्ञान करने का सरलतम तरीका सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन है। हमारी दृष्टि में संसार में सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के समान दूसरा महत्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं है। इसके अध्ययन से मनुष्य की सभी शंकायें व समस्यायें दूर हो सकती हैं। संसार में तीन अनादि व नित्य सत्तायें ईश्वर, जीव व प्रकृति हैं। इन सत्ताओं के यथार्थ स्वरूप पर भी सत्यार्थप्रकाश में प्रकाश डाला गया है। सत्यार्थप्रकाश से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह अन्य सामान्य अल्प बुद्धि वाले लेखकों के ग्रन्थों से नहीं मिल सकता। सत्यार्थप्रकाश के लेखक ऋषि दयानन्द थे। उन्होंने अपना जीवन ईश्वर व सत्य सिद्धान्तों की खोज, योगाभ्यास, ईश्वर की उपासना सहित ईश्वर की आज्ञा के पालन व ईश्वरीय ज्ञान वेदों के प्रचार व प्रसार में लगाया था। वह असाधारण मनुष्य, विद्वान, मनीषी तथा मनुष्य की सर्वोत्तम स्थिति ‘ऋषि’ उपाधि को प्राप्त महापुरुष थे। उन्होंने जो बातें लिखी हैं वह अपनी विद्वता के प्रदर्शित करने के लिये नहीं अपितु ईश्वर व मानवता के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिये लिखी हैं। उनका उद्देश्य संसार में फैली हुई अविद्या व अज्ञान को दूर करना था जिससे अज्ञान, अन्धविश्वासों तथा पाखण्डों से मुक्त समाज बन सके। अतः सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर उसके अर्थ व भावों को सभी मनुष्यों को ग्रहण व धारण करना चाहिये। जहां किसी को किसी प्रकार की कोई शंका व भ्रान्तियां हों, उसका आर्य वैदिक विद्वानों से निवारण कर लेना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य सन्मार्गगामी बनेंगे। सन्मार्ग-गामी मनुष्य को ही ईश्वर की कृपा, प्रेरणा व आशीर्वाद प्राप्त होता है। मनुष्य मूर्ख से विद्वान, दुःखी से सुखी, साधारण से असाधारण तथा पुरुषार्थ करते हुए उसके अनुरूप लाभों को प्राप्त करता हुआ न केवल धनवान व स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है अपितु मनुष्यों की श्रेष्ठ स्थितियों योगी, विद्वान व ऋषित्व तक को प्राप्त हो सकता व हो जाता है। अतः मनुष्य को सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य जीवन के सत्य रहस्यों से परिचित होना चाहिये और सही दिशा में प्रयत्न करते हुए अपनी शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति करनी चाहिये। ऐसा होने पर ही हमारा जीवन सफल व सार्थक हो सकता है। 

    सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य को ईश्वर व जीवात्मा के अनादि व अविनाशी होने सहित इस संसार के नाशवान होने तथा सृष्टि में उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय होते रहने के सिद्धान्तों का ज्ञान होता है। सत्यार्थप्रकाश एवं ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर ईश्वर का जो सत्यस्वरूप उपस्थित होता है वह उन्हीं के शब्दों में ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र एवं सृष्टिकर्ता है। उसी की (सब मनुष्यों को) उपासना (योग विधि वा ध्यान पद्धति द्वारा) करनी योग्य है।’ इस नियम से यह ज्ञात हो जाता है कि संसार में ईश्वर अनादि, नित्य, अविनाशी एवं सदा रहने वाली सत्ता है। जीवात्मा के विषय में भी वेद व ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों से ज्ञान होता है। जीवात्मा सत्य, चित्त, आनन्द गुण से रहित, आनन्द की इच्छुक व इसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहने वाली, अजर, अमर, अनादि, नित्य, एकदेशी, ससीम, कर्मों को करने वाली, जन्म-मरण धर्मा अर्थात् आवागमन में फंसी हुई एक सत्ता है। यह आत्मा वेद विहित कर्मों को करके परजन्म में श्रेष्ठ योनियों को प्राप्त होकर वेदाध्ययन आदि से ज्ञान व श्रेष्ठ कर्मों को करती है तथा ईश्वर के स्वरूप व उसके गुणों का ध्यान करके उसका साक्षात्कार करने वाली सत्ता भी है। यह आत्मा मनुष्य योनि में समाधि को प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार होने पर जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त होकर मृत्यु होने पर मोक्ष को प्राप्त करने की सामथ्र्य से युक्त सत्ता है। मोक्ष ही सभी जीवात्माओं का एकमात्र लक्ष्य है। मोक्ष में जीवों के सभी दुःखों की सर्वथा मुक्ति हो जाती है। ईश्वर व जीव से इतर तीसरी अनादि सत्ता प्रकृति है जो त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज व तम गुणों वाली है और अत्यन्त सूक्ष्म है। ईश्वर व जीव प्रकृति से भी अधिक सूक्ष्म सत्तायें हैं। इस त्रिगुणात्मक प्रकृति का विकार होकर ही महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें, दश इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि बनते हैं। पृथिवी, अग्नि, वायु, जल और आकाश पंच-महाभूत भी प्रकृति का ही विकार हैं। इन पांच महाभूतों व प्रकृति के विकारों से बना हुआ ही यह संसार है जिसमें हम रहते व आते जाते रहते हैं। इन रहस्यों को जानकर हमारी सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है। प्रकृति के रहस्यों का ज्ञान भी हो जाता है और परमात्मा के हम पर जो-जो मुख्य उपकार हैं, उनका ज्ञान भी हमें हो जाता है। अतः सबको सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन अवश्य ही करना चाहिये। 

    ईश्वर का जीवों पर पहला प्रमुख उपकार तो सभी जीवों के लिये इस सृष्टि की रचना व इसका पालन करना तथा जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म व योनि प्रदान करना है। सभी जीवों को उनके पूर्वकृत कर्मों के अनुसार सुख व दुःख रूपी भोग भी परमात्मा द्वारा प्रदान किये जाते हैं। इतना विशाल ब्रह्माण्ड वा संसार जिसमें करोड़ो सूर्य, पृथिवियां, ग्रह, उपग्रह व नक्षत्र आदि हैं, परमात्मा ने हम संख्या में अनन्त जीवों के सुख व कल्याण के लिये बनाये हैं। यह ईश्वर का कोई छोटा उपकार नहीं है। इसके बाद विचार करते हैं तो हमें विदित होता है कि हमें जो भाषा व विद्या विषयक ज्ञान होता है वह भी ईश्वर ही कराता है। सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में ही उसने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को उत्पन्न कर चार वेदों का ज्ञान दिया था। वेदों की भाषा संस्कृत संसार की सबसे उत्तम व श्रेष्ठ भाषा है। संसार की भाषाओं व वेदों का अध्ययन कर संस्कृत भाषा की महत्ता का अनुमान किया जाता है। वेदों के ज्ञान के समान संसार में कोई ज्ञान का भण्डार नहीं है। किसी मत-मतान्तर की पुस्तक की यह स्थिति नहीं है कि उनकी तुलना वेदों से की जा सके। वस्तुतः सत्य यह है कि सभी मत-मतान्तरों व उनकी पुस्तकों में जो सत्य ज्ञान है वह सब वेदों से ही वहां पहुंचा है। इसका ज्ञान भी सत्यार्थप्रकाश पढ़कर हो जाता है। वेदों का अध्ययन कर मनुष्य सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त हो जाता है और इसी का पालन वा आचरण करने से ही मनुष्यों के सभी दुःखों की निवृत्ति होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। संसार को वेदों का जो ज्ञान मिलता है, वह परमात्मा का कोई छोटा उपकार नहीं है। इसकी महत्ता को वैदिक विद्वान ही उचित रूप में अनुभव कर सकते हैं। 

    ईश्वर का एक अन्य बड़ा उपकार जीवात्माओं को जन्म, जीवन व मृत्यु प्रदान करना है। हमें यह जो जन्म व जीवन प्राप्त हुआ है वह भी परमात्मा ने ही दिया है। उसी ने पूर्वजन्म में हमारी मृत्यु होने पर हमारे माता-पिता व परिवार का निर्धारण किया था। उसी ने वर्तमान जीवन के माता-पिता के पास भेजकर हमें जन्म दिया, उनसे हमारा पालन कराया, हमें शिक्षित व शरीर का पोषण कराया है। हमारे शरीर का रोम-रोम ईश्वर व अपने माता-पिता का ऋणी होता है। जिस अवस्था में हमारा जन्म होता है उस अवस्था में यदि माता-पिता पालन न करें तो हमारा जीवित रहना असम्भव होता है। दस मास तक माता का सन्तान को गर्भ में रखकर उसकी शरीर रचना में सहयोगी होना, गर्भ की रक्षा करना, जन्म के बाद सारा जीवन अपनी सन्तानों पर अपनी ममता व स्नेह की वर्षा करने से कोई भी सन्तान अपनी माता-पिता के उपकारों से कदापि उऋण नहीं हो सकती। यदि कोई ऐसा सोचे कि उसने अपने माता-पिता का ऋण उतार दिया है तो ऐसा सोचना भी पाप होता है। वस्तुतः मुनष्य माता-पिता के ऋणों से कभी उऋण नहीं हो सकता। ईश्वर के ऋण से उऋण होना तो असम्भव ही है। हमारे माता-पिता जो सत्कर्म करते हैं वह सब ईश्वर की प्रेरणा व उसके बनाये नियमों से ही करते हैं। इनका अधिकांश श्रेय भी परमात्मा को ही होता है। माता-पिता के बाद हम जिन आचार्यों से ज्ञान की प्राप्ति करते हैं उनका हमारे जीवन निर्माण में योगदान होता है। इसी कारण से माता-पिता व आचार्यों को देव या देवता तथा ईश्वर को महादेव कहा जाता है। हमारा यह जन्म व जीवन पहला जन्म नहीं है। आत्मा व परमात्मा अनादि व नित्य हैं तथा हमारी यह सृष्टि भी प्रवाह से अनादि है। अतः हमारे अनन्त वा असंख्य जन्म इससे पूर्व हो चुके हैं। वह सब परमात्मा ने ही हमें दिये हैं और आगे भी कभी न रुकने वाला यह क्रम चलता ही रहेगा। इस सबके लिये हम परमात्मा के ऋणी हैं। अतः हमारा कर्तव्य बनता है कि हम परमात्मा का प्रतिदिन प्रातः व सायं स्मरण, ध्यान, चिन्तन व मनन आदि करते रहें, ईश्वर की तरह हम भी परोपकार के कार्यों को करें और सर्वव्यापक व निराकार ईश्वर की वैदिक विधि से उपासना करें जिससे हमारा आत्मा दुर्गुणों, दुव्यस्नों व दुःखों से मुक्त होता है तथा सद्गुणों, सुखों व भद्रताओं को प्राप्त होता है। यदि हम ऐसा करेंगे तो निश्चय ही हमारा कल्याण होगा। हम सुखी होंगे। हमारी सामाजिक तथा आत्मिक उन्नति होगी। हम स्वस्थ व दीर्घायु होंगे। हमारा यश फैलेगा। हम ईश्वर, वेद व अपने ऋषि आदि पूर्वजों द्वारा पोषित परम्पराओं का पालन करने वाले बनेंगे, संसार में सुख व न्याय का विस्तार होगा तथा हम अपनी सन्तानों को भी वैदिक परम्पराओं वाला बनाकर जा सकेंगे। अतः हमें वेदाध्ययन, सत्यार्थप्रकाश सहित समस्त वैदिक साहित्य का नित्य प्रति अध्ययन व स्वाध्याय करना चाहिये। सभी वैदिक विधानों का आदर करते हुए उन्हें जानना, मानना व उनका पालन करना कराना चाहिये। इससे हमारा व सभी मनुष्यों का कल्याण होगा। ओ३म् शम्। 
    -मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121 


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories :
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like