उस जमाने में दानवी संस्कृति के परिचायक हिरण्यकश्यप भी थे और सत्ता के मद भरी फायरप्रूफ होलिकाएं भी। अंधे मोह और मद भरी कुर्सियों का वजूद तब भी था और आज भी है। अन्तर सिर्फ इतना भर हो गया है कि तब एक हिरण्यकश्यप था, एक होलिका थी। आज कई शक्लों और लिबासों में हिरण्यकश्यपों की जमातें हैं, कुर्सी को शाश्वत और अजर-अमर मानने वाली होलिकाएं भिन्न-भिन्न रूपों में हमारे सामने हैं।
इनके रंग अलग-अलग हैं जो होली पर ही नहीं बल्कि पूरे साल भर गिरगिटों को भी छकाते लगते हैं। वो जमाना था जहाँ दैत्यों से लेकर देवताओं तक की कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं हुआ करता था।
छल-फरेब तो था ही लेकिन इससे भी आगे बढ़कर सच यह था कि जो जैसा है वैसा दीखता भी था और होता भी था। आज सब कुछ उलटा-पुलटा हो चला है। आदमी अन्दर से कुछ और है, बाहर से कुछ और, यहाँ तक कि दाँये से कुछ और है, और बाँये से कुछ और।
जो सामान्य हैं वे भी, और असामान्य हैं वे भी, सारे के सारे जाने कितने चेहरों, चाल और चलन से एक साथ नॉन स्टॉप कुलाँचे भरते जा रहे हैं। जाने कितने रंगों के एक साथ घालमेल ने आदमी के मन को इतना बदरंग बना डाला है कि पता ही नहीं चलता कि असली रंग कौन सा है।
सच कहें तो आदमी का अपना रंग कहीं खो चला है और आयातित रंगों और रसों के सहारे वह शिखरों को छू लेने का स्वप्न संजोये कभी किसी को पछाड़ देता है, कभी किसी को रुला देता है। इस अंधी दौड़ में उसे न अपनों का बोध है, न परायों का।
हर कोई लगता है जैसे जीवंत अभिनय का महारथी बहुरुपिया ही हो। रोजाना ढेरों किरदारों को जीते हुए, लोगों को मुगालते में रखते हुए आदमी खुद को भी नहीं समझ पा रहा है कि आखिर वह है क्या, और क्या होता जा रहा है। मोयलों और मच्छरों की तरह चारों तरफ बहुरूपियों और स्वाँगियों का कुंभ बारहों मास चलता रहता है। रोजाना सैकड़ों-हजारों बार झूठ ही झूठ परोसकर गुमराह करने वाले धूर्त्त-मक्कारों की फौज है जो रोजाना आशंकाओं का भविष्य बताती हैं, कयासों के बाजार सजाती है और हर दिन कोई न कोई ऐसा षड़यंत्रा रचती रहती है जिससे कहीं न कहीं कोई न कोई धमाल हो जाए ताकि रोजमर्रा का मसाला मिलता रहे औरों को बदनाम करने का, और मीडिया में लगातार बने रहकर अपनी जंग लगी जिन्दगी को चमकाने का।
पॉवर फुल और पॉवरलेस दोनों तरह के आदमी बहुरुपियों को भी उन्नीस ठहराने लगे हैं। सत्ता की होलिकाओं की गोद में एकदम निर्भय बन बैठे उन लोगों के लिए कुर्सियां अभेद्य सुरक्षा कवच ही हो गई हैं जिनमें धंसे रहकर वे जमाने पर कुछ भी सितम ढाने के आदी हो गए हैं।
अपने अस्तित्व को पाने जब आदमी सारे नैतिक मूल्यों और आदर्शों को स्वाहा करते हुए आगे बढ़ने का भ्रम पाल लेता है तब उसके लिए मनुष्य होने का बोध जगने का कभी प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कालिया की तरह महाविषैले फुफकारू व्यवस्था की यमुना को साफ करने की दुहाई देते हुए डेढ़-दो दशक से इन्द्रप्रस्थियों को गुमराह कर चुके हैं।
अन्ना के गन्ने दारू के नाम पर दलाली का दावानल भभका गए, उसकी आग दशक तक भी बुझने वाली नहीं। कट्टर ईमानदार के साथ सादगी और ईमानदारी झुनझुने लेकर घूमने वाले ढपोड़शंखी मदारी और जमूरे नगाड़े और डमरू बजाने की बादशाहत पा चुके हैं। शीशमहलिया लाक्षागृह की धधकती आग में झुलसे सारे कट्टरों के पास अब नंगई नाच के सिवा कुछ बचा ही नहीं। लोगों ने सब देखा लिया है इन बेशर्मों का।
अपने आस-पास नज़र घुमाएं तो दिखेगा कि लोग कितनी दोहरी-तिहरी या बहुरुपिया जिन्दगी जीते हैं। उच्चाकांक्षाओं के फेर में लगातार मानवीय मूल्यों को रौंदते हुए आगे बढ़ते हुए दीखने वाले इन लोगों के लिए भ्रम में जीना और भ्रम फैलाते हुए आगे निकल जाना ही उनका एकमेव जीवन लक्ष्य है।
इन लोगों के हर कर्म और व्यवहार में साफ झलकता है दिखावा। कहते कुछ हैं, करते कुछ और होता है कुछ और। षड़यंत्रों और फरेब की बुनियाद पर टिके इन लोगों की सारी खिड़कियाँ और दरवाजे अन्दर की ओर ही खुलते हैं।
किसी जमाने में मोहब्बत की दुकान चलाने वाले दिवालिया नौटंकीबाज अब इसका कबाड़ उठा-उठाकर एक से दूसरे राज्य में बेचने घूम रहे हैं। बार-बार लाँच होते हुए विफल रहने वाले अधकचरे बूढऊ भूरी काकी और दादी के नाक वाली बहनिया के साथ काले अंग्रेजों को नचा रहे हैं। उटपटांगिया चेहरे, लम्बी नाक वाले टोपीबाज, टोंटीचोर, घासचोर से लेकर दिन-रात भौंकने वाले प्रवक्ता, नेता और आलू-बैगन, महाकुंभ पर टीका-टिप्पणियां और बकवास करने वाले सारे एक साथ मिलकर पता नहीं किस अजायबघर या पागलखाने का सपना देख रहे हैं। लगता है कि अब मनोरंजन के लिए इन मसखरों के होते हुए किसी और संसाधन की आवश्यकता नहीं पड़ने वाली।
इन्हें कोई सरोकार नहीं जमाने की प्रतिक्रिया का। कुर्सी की होलिकाओं के फायर प्रूफ आवरण ने इन्हें इतना निर्भय बना दिया है कि इनके लिए कुछ भी करना अस्पृश्य नहीं है। जो जिस रंग के लिबास में बैठा है उस रंग की वाह-वाह करते हुए जनमानस को भ्रमित करता हुआ अपने उल्लू सीधा कर रहा है। जनता की आह-कराह कि उसे फिकर है ही कहाँ। और उल्लुओं के पट्ठे अपने आकाओं, बाप-दादाओं पर इतराते हुए स्टन्ट और क्राईम की दुनिया में कूदे पड़े हैं।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से लेकर मोबाइल और टीवी तक हर कहीं कुटिल मुस्कान बिखेरती, पागलों की तरह चिल्लाती और माथे पड़ती होलिकाएं नज़र आ रही हैं, साथ में ढूण्ढा राक्षसियां भी इनका साथ देती दिखने लगी हैं। और हिरण्यकश्यपों का हाल तो रक्तबीज की तरह हो गया है। मुफ्त का खान-पान, हराम का पैसा, भोग-विलास के सारे संसाधन, हर तरह की जायज-नाजायज सेवाएं और आतिथ्य पाने का आकांक्षी मुफ्तखोर और हरामखोर अपने-अपने पालनहारों की सेवा में जुटे गौरवगान कर रहे हैं।
किसम-किसम के पालतू और फालतू श्वानों से लेकर गधे-घोड़े और उल्लू-गिद्ध तक सारे खुश हैं। हर कोई किसी न किसी की माँद में घुसा हुआ सुरक्षित भी है और हर तरह के मजे भी मार रहा है। देश में काले अंग्रेजों की नई नस्ल का प्रसार कांग्रेस घास, अमरबेल, बेशर्मी और जलकुंभी की तरह हो रहा है।
अब बहुत हो चुका है। होलिकाओं को दिया वरदान समाप्त हो चुका है। प्रह्लाद की पुकार अब ताकत पाने लगी है, हर कोने-कोने से आहट आनी शुरू हो गई है, देश के बचे-खुचे हिरण्यकश्यपों, होलिकाओं और ढूंढा राक्षसियों के साथ ही उनकी रिश्तेदार शूर्पणखाओं, पूतनाओं, सुरसाओं आदि सभी को ही चेत जाना चाहिए वरना अब समय करीब आ गया है, कितना कुछ हजम कर चुकने के बाद भी डकार तक नहीं लेने वाला उनका पेट अब ज्यादा दिन सुरक्षित नहीं है। दृढ़ इच्छाशक्ति और जनशक्ति का प्रभाव दिखने लगा है।
इस बार की होली बहुत कुछ कह रही है अपनी आग के बारे में। यह आग अब किसी को छोड़ने वाली नहीं। कोई बच नहीं पाएगा। सब कुछ खाक हो जाएगा इसमें। आगे-आगे देखते जाइयें होता है क्या।